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मेरा जीवन और मेरा अनुभव …………..पार्ट- ४.

SUBODHA
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शाम को हरदोई से शाहगंज (बरेली फ़ास्ट पैसेंजर से), और शाहगंज से रसड़ा (शाहगंज – मुग़ल सराय ट्रैन से).रसड़ा से प्रधानपुर वाया बस………………………………..क्रमशः
प्रधान पुर गांव के अंतिम छोर पर जाकर,(जहाँ पक्की सड़क ख़त्म हो जाती,और नदी के किनारे तक पहुँचने के लिए थोड़ी तिर्यक कच्ची सड़क थी,) पुल के कुएं की खुदाई के काम में आने वाली क्रेन दिखाई देने लगती.हम वाहन से जैसे ही नीचे उतरे,डैडी जी ने उंगली उठाकर बताया,वहां जो बड़ी मशीन खड़ी दिख रही ,उसे क्रेन कहते,वहीं पुल बन रहा है.हम कच्ची सड़क(लगभग ३५० मीटर) से होते हुए नदी के किनारे पहुँच गए.वहां एक पुल के शिलान्यास का पत्थर लगा हुआ था,उसे मैं लगभग प्रतिदिन पढता था,उसकी भाषा पढ़ने में मुझे बढ़ा मजा आता था————–उनके कर कमलों द्वारा आदि -आदि.पर अब मुझे उन मंत्री महोदय का नाम याद नहीं,जो शिलालेख पर खुदे हुए थे.उस शिलालेख पर नदी का नाम -“टोंस” लिखा था.शायद रामचरितमानस की “तमसा” ,जिसके किनारे प्रभु ने वनवास के प्रथम दिवस विश्राम किया(तुलसी के शब्दों में -“प्रथम वास तमसा भयउ ,दूसर सुरसरि तीर”. ) अंग्रेजों की जिह्वा में इतना सीधापन नहीं था -कि वह तमसा कह सकें ,वो तमसा को अपनी टोन में टोंस कहने लगे. खैर किसी के कहने से क्या फर्क पड़ता,जो जैसा है ,वो वैसा ही रहता है.
नदी के किनारे का जीवन ,खुली हवा -शीतल ,मंद ,सुगंध(त्रिविध) समीर, अच्छा निर्मल स्वादिष्ट नीर, वहीं सेतु निगम का स्टोर, इंजीनियर्स और ऑफिसर्स के बैठने का ऑफिस एक तरफ ,उसकी दूसरी ओर वर्कर्स के क़्वाटर्स,ऐसा ही नदी के दूसरी ओर भी कुछ क़्वाटर्स और एक ऑफिस. हम नदी के इस तरफ ,प्रधानपुर गांव की ओर , एक रूम में रहते थे.रास्ते की थकान वगैरह उतरी,रूम व्यवस्थित हुआ. मैं उन सबके बीच में नया गेस्ट, छोटा बच्चा -९ साल की उम्र,नए -नए सपने,पढ़ने की चाह- सबके आकर्षण का केंद्र बन गया. नए -नए ऑफिसर्स आते,मुझे देखकर पूछते,यह कौन.कोई भी उन्हें बता देता -“दुबे जी का बेटा”.
अब हमारे एडमिशन का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ.पहले हमारे एडमिशन के लिए नदी की दूसरी तरफ लगभग ६-७ किलोमीटर दूरी का एक आवासीय कॉलेज, heartmaan कॉलेज इन heartmaan पुर सुनिश्चित किया गया. वहां नदी के इस तरफ से भी एक लड़का पहले से पढता था. वह १ से १२ तक का अच्छा बड़ा कॉलेज था.किसी अँगरेज़ ने वनवाया था. उसमे अगली क्लास में एडमिशन के लिए सभी विद्याथियों की प्रवेश परीक्षा होती थी,चाहे वह उसी कॉलेज के बच्चे क्यों न हो.
पर मुझे लगता था -मैं नदी के इसी तरफ पढूं,कौन इतनी दूर जायेगा ,नयी -नयी जगह,मुझे उधर की बोली भी शुरुआत में थोड़ी कम समझ में आती थी. ……………………………………..शेष अगले ब्लॉग में .

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