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मेरा जीवन और मेरा अनुभव …………..पार्ट- १.

SUBODHA
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मुझे बचपन के किसी क्लास की एक पोएम याद आ रही है-शायद उसका शीर्षक था-“नन्ही चिड़िया और उसका संसार”. उसकी एक आधी -अधूरी पंक्ति जो मुझे याद है -……………….जब मैं उड़ी दूर तक पंख पसार,तभी समझ में मेरी आया ,बहुत बड़ा यह है संसार.
उस poem में एक चिड़िया के छोटे बच्चे की कल्पना है-पहले बच्चा सोचता जितना बड़ा उसका घोसला है ,उतनी ही पूरी दुनिया है.बड़ा होकर जब वो बहुत दूर तक उड़ता तभी उसको समझ में आता ,दुनिया का विस्तार.
ऐसे ही हर एक चेतना की अपनी कल्पनाशीलता है.जितना २,४,१० पुस्तकें पढ़कर इंसान नहीं समझ सकता ,उतना १-२ शहर घूमकर समझ सकता है.आँखों के सामने हर एक घटना घटित होती है,अच्छे -बुरे लोग मिलते हैं ,उनसे बात चीत करने का तौर -तरीका ,हर एक विषय पर अपना नजरिया,समाज की खूबियां और कमियां आदि -आदि और वह परमानेंट मेमोरी में चली जाती हैं .
मैं क्लास ५ तक अपने गॉव की कन्या प्राइमरी पाठशाला में पढ़ा.अब प्राइमरी में पढ़कर इंजीनियर बनना,नामुमकिन तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य है.लेकिन जैसे स्कूल में होमवर्क दिया जाता है ,मुझे मेरे घर की तरफ से स्कूल वर्क दिया जाता था. मैं लकड़ी की खाली तख्ती लेखर स्कूल जाता था ,और बाबा और माँ जी के आदेशानुसार स्कूल से तख्ती के दोनों साइड पूरे भरकर लाता था-पहाड़े ,गिनती ,हिंदी वर्णमाला आदि.
५ तक की पढाई पूरी होने पर मेरे डैडी जी ,जो उस समय उत्तर प्रदेश राज्य सेतु निगमकी वाराणसी इकाई के अंतर्गत- प्रधानपुर, पोस्ट-रसड़ा,जनपद-बलिया में टोंस नदी पर कार्यरत थे,ने सोचा आगे की पढाई मैं वहां करूँ.
“प्रत्येक पिता अपने बच्चे को अपनी आँखों के सामने बढ़ता देखना चाहता है और उसे संसार में जीना सिखाना चाहता है ,क्यों की उसे लगता है जो कमी उसकी परवरिश में रह गयी ,वो उसके बच्चे की परवरिश में न रहने पाये. शायद यही संसार के डेवलपमेंट होने की एक अच्छी वजह भी है”.
मैं भी पूरे मन से अपने गॉव के बाहर की दुनिया,पुल का काम देखने को बेताब हो रहा था,लेकिन बाबा जी मुझे अपने पास रखकर ही पढ़ाना चाहते थे,यह उनकी भावनात्मक अपील थी……………………..

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