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“मज़दूर की ख्वाइश”

SUBODHA
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मेरे बेटे को बाहर देखने की आदत अर्थात घर के अंदर कुछ ही समय गुजारना चाहते ,उन्हें बाहर की आबो-हवा मिलनी चाहिए ,कौन आ रहा ,कौन जा रहा .किसे के रोने की धुन सुनकर चौंकते ,चाहे वह हमउम्र शिशु ही क्यों न हो | अब शहर में इतनी व्यवस्था तो है नहीं ,गांव जैसा चौक या चबूतरा भी नहीं ,अतः हमने अपनी खिड़की के ग्रिल पर एक लकड़ी का प्लैंक रखा ,जिस पर वह बैठकर आत्मरंजन करते हैं | गली की दूसरी ओर कुछ दूरी पर गृहनिर्माण का कार्य चल रहा था ,एक मजदूर गिट्टी ढो रहा था ,जो मेरी खिड़की के पास से गुजर रहा था | बेटे ने २-४ बार उसे पुकारा -अंकल…..अंकल | मैंने पूछा-क्या हुआ ,कौन है नन्नू ? मैं भी खिड़की के पास खड़ा हुआ और उस मज़दूर को देखकर कहा ,अच्छा आप हो | वह बोला- मुझसे इतने बच्चे या जवान लोग मिलते ,कोई भी बात ही नहीं करता ,पर यह तो तब से बहुत बार बुला चुका |
मैंने कहा -हाँ ,वह घर में खिलौनों से नहीं खेलते ,बाहर खुले में बैठना चाहते |
पर उस मज़दूर के वाक्य में जो अन्तर्निहित सन्देश था ,वह मुझे छू गया | मज़दूर यह चाहता है ,कोई उससे बात करे ,उससे उसका हाल चाल पूछे |
पहले गांवो में मज़दूर को २ घंटे पर मिठाई -पानी और दोपहर का खाना खिलाया जाता था ,पर बदलते परिवेश ने इन सभ्यताओं का अंत कर दिया ,परिणामस्वरूप मज़दूर की आत्मा भी आहत है,वह भी दिनभर शराब के नशे में ही काम करता है और शाम को शराब पीकर सो जाता है |

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