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“लेखनी,तू क्या-क्या लिखती है!”

SUBODHA
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मैंने अपने वरिष्ठ इंस्ट्रक्टर श्री जी.आर.चौधरी जी से जाना – लिखते वक्त हेड,हार्ट और हैंड तीनों इंटरकनेक्ट रहते हैं,इसलिए कोई भी इंसान ऐसा नहीं कर सकता,लिखे कुछ और ,सोचे कुछ और | वह जो सोचता है,वही लिखता है |
पर मैंने सोचा,लेखनी किस दशा,किस समय में क्या लिखती होगी |

लेखनी, ब्रह्ममुहूर्त में अरुणाभ लिखती है |
पूर्वाह्न में प्रस्थान,मध्याह्न में विश्राम एवं अपराह्न में आगमन लिखती है |
रात्रि के प्रथम पहर में शांति,द्वितीय में विश्रांति ,तृतीय में सृजन लिखती है |
संधि काल में तू भविष्य से मिलन,भूत का वियोग लिखती है |
लेखनी,शांत हो तो चिंतन करती है,चल पड़े तो परिवर्तन करती है |
प्रेम की चाह में श्रृंगार लिखती है,प्रेमी की चाह में विरह लिखती है |
क्रोधित होने पर अंगार लिखती है,प्रफुल्लित होने पर पुष्प झरती है |
उत्साहित होने पर समय से आगे चलती है ,अवसाद में काल को थमने का आदेश देती है |
सम्मानित होने पर स्वाभिमान लिखती है,अपमानित होने पर भूपों के दरबार उलटती है |
द्रवित हो तो दया,दुखी हो तो करुणा,उद्वेलित हो तो वीरता,ममत्व की दशा में वात्सल्य, मोहित हो तो माया,चाह हो तो उत्थान ,लोभ हो तो पतन,अहंकार हो तो सर्वनाश लिखती है|
किसान की लेखनी,अनाज को परिभाषित करती है |
मज़दूर की लेखनी ,परिश्रम को परिभाषित करती है |
लेखनी चाहे लकड़ी की हो ,अथवा चांदी या सोने की
वह भूत ,भविष्य और वर्तमान लिखती है |
अधिक क्या कहूँ तुम्हारी महिमा में ,
हे लेखनी ! किसी सत्यनिष्ठ-कर्मठ हाथों से तुम, ईश्वरीय सन्देश लिखती हो |

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