Jeevan
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बलात्कार: हम नहीं करते तो फिर कौन?

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बलात्कारियों की सोच संकीर्ण होती है। इनमें शिक्षा का आभाव होता है। ये छोटे, गरीब या पिछड़े वर्ग से आते हैं। यही समाज की मानसिकता थी या शायद अभी भी बनीं हुई है। इस तथ्य को खुद बलात्कार जैसे घिनौने अपराध करने वालों ने झुठला दिया है।


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अब एेसे वाकये ज्यादा विकसित शहरों में होने लगे हैं, जहां के लोग ज्यादा शिक्षित हैं। ऐसी वारदात में संलिप्त रहे लोगों में पढ़े-लिखें लोगों की संख्या अधिक होने लगी है। सवाल यह है की हम बलात्कार जैसे घिनौने अपराध क्यों करतें हैं?


हम या हमलोग, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि वह हमारे समाज का हिस्सा होते हैं। यह कहना बाद में असान होता है कि उन्हें फांसी की सजा होनी चाहिए और शायद होनी भी चाहिए। पर इस अपराध के पहले उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड (Criminal Records) नहीं है, बल्कि यह ही उसका पहला जघन्य अपराध होता है।


इससे पहले वह हमारे समाज का ही हिस्सा होते हैं और हमारे उनके बीच वैचारिक संबंध भी रहते हैं, भले ही हम उनका बाद में बहिष्कार करें। जिस हवस में आकर वह बलात्कार, हैवानियत जैसा अपराध करता है, वही हवस उसके जीवन भर का नासूर बन जाता है।


कैसे हम इंसान से हैवान बन जाते हैं? हम अपने अंदर की चाहत और जिस्मानी समंध के रूहानी ख्याल को हवस के अंजाम तक क्यों पहुंचने देते हैं, जो हैवानियत को भी शर्मसार कर दे। अरमान, अभिलाषा, चाहत, इच्‍छा होना यह मनुष्य होने के प्रमाण हैं, इसका अंत ईश्वर है, जो शून्य में विराजमान है।


अपनी अभिलाषाओं को प्रेम, सौहार्द, आदर्श, सहमति, सम्मान के साथ पूरा करना ही हमे इंसान बनता है और हमारी कमजोरी हैवान। मंजिल एक है, रास्ते दो, किस रास्ते जाना है, तय हमें करना है। चाहत ही संसार है, चाहत ही विनाश। चाहत ही प्रेम है, चाहत ही नफ़रत। चाहत ही इंसान, चाहत ही शैतान।

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