काव्य ब्लॉग मंच
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कुछ बहते बादलों पे रक्खी उम्मीदें
बरसती रहीं, तरसती रहीं .
चांद आसमान में जड़े सुराख की तरह झांकता रहा
और रात…किसी अंधे कूएं की तरह मुंह खोले हांफती रही.
रास्ते पांव तले से निकलते रहे, ….न रुके, न थमे,
न रोका, न पूछा….ज़िन्दगी किस तलाश में है.
ज़िन्दगी थकने लगी है, और ये… ज़िन्दगी का जुड़वां
उसकी ऊंगली पकड़े.. शहर की नंगी सड़कों पर
अभी तक कुछ बीन रहा है, कुछ ढूंढ रहा है .
– गुलजार
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