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गरीबों की जवानी

काव्य ब्लॉग मंच
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Hindi Kavita on Povertyरूप से कह दो की देखे दूसरा घर,

मैं गरीबो की जवानी हूं, मुझे फुर्सत नहीं है.


बचपने में मुश्किलों की गोद में पलती रही मैं

धुंए की चादर लपेटे, हर घड़ी जलती रही मैं

ज्योति की दुल्हन बिठाए, जिंदगी की पालकी में

सांस की पगडंडियों पे रात दिन चलती रही मैं

वे खरीदे स्वप्न, जिनकी आंख पे सोना चढ़ा हो

मैं अभावों की कहानी हूं, मुझे फुर्सत नहीं है.


मानती हूं मैं, कि मैं भी आदमी का मन लिए हूं

देह की दीवार पर, तस्वीर सा यौवन लिए हूं

भूख की ज्वाला बुझाऊं, या रचाऊ रासलीला

आदमी हूं, देवताओं से कठिन जीवन लिए हूं

तितलियों, पूरा चमन है, प्यार का व्यापार कर लो

मैं समर्पण की दीवानी हूं, मुझे फुर्सत नहीं है.


जी रही हूँ क्योकि मैं निर्माण की पहली कड़ी हूं

आदमी की प्रगति बनकर, हर मुसीबत से लड़ी हूं

मैं समय के पृष्ठ पर श्रम की कहानी लिख रही हूं

नींद की मदिरा न छिड़को, मैं परीक्षा की घड़ी हूं

हो जिन्हें अवकाश, खेले रंग रूपों के खिलौने

मैं पसीने की रवानी हूं, मुझे फुर्सत नहीं है.


जिंदगी आखिर कहां तक सब्र की सूरत गढ़ेगी

घुटन जितनी ही अधिक हो, आंच उतनी ही बढ़ेगी

आंधियों को भी बुलाना दर्द वाले जानते हैं

रूढियों की राख कब तक, आंच के सर पर चढ़ेगी

शौक हो जिनको, जियें परछाइयों की ओट लेकर

मैं उजाले की निशानी हूं, मुझे फुर्सत नहीं है.

-देवीप्रसाद शुक्ला राही

Hindi Kavita on Poverty

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