काव्य ब्लॉग मंच
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पास ही के एक स्कूल से
सुनाई पड़ रही थी
देशभक्ति के गीतों की
स्वर लहरियां
और गूँज रहे थे
माँ भारती की
जय – जयकार के
गगनचुम्बी नारे
बिना स्कूल बेग के
आते जाते बच्चे
अहसास करा रहे थे
गणतंत्र दिवस के
आगमन का
एक ऐसा गणतंत्र
जिसमें रह गया है
सिर्फ तंत्र
और नदारद है
आम जन
एक ऐसा जनतंत्र
जो जनता का
जनता के लिए
जनता के द्वारा शासन नहीं
बल्कि नेताओं का
नेताओं के लिए
नेताओं द्वारा शासन है
एक ऐसा लोकतंत्र
जिसमें लोगों को
याद तो किया जाता है
लेकिन बस
चुनावों के समय
एक ऐसा प्रजातंत्र
जिसमें प्रजा तरसती है
दो वक्त की रोटी के लिए
और मंत्री उड़ाते हैं मौज
पांच सितारा होटलों में
रकम जेब में मोटी लिए
सोच रही हूँ कब से
क्यों हम हो गयें है इतने विवश
जो मना रहे हैं गणतंत्र दिवस
यह तंत्र हमारा है ही नहीं
फिर हम क्यों हैं इतने बेबस ?
साभार: मोनिका जैन
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