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बहुत सोचा बहुत समझा मगर कुछ लिख नहीं पाया .
कवि कल्पनाओं से चाहत का घड़ा मैं भर नहीं पाया ||
बहुत से लोग कहतें हैं कि लिखते हो बहुत अच्छा .
मगर ढाई अक्षर मेरे अब तक कोई पढ़ नहीं पाया ||
बहुत सोचा बहुत समझा मगर कुछ लिख नहीं पाया .
कवि कल्पनाओं से चाहत का घड़ा मैं भर नहीं पाया ||
ये राते रोज़ मुझको दौड़तीं हैं काटने को अब .
सकूँ से पल दो पल कभी मैं सो नहीं पाया ||
पहरा रहता है मेरी आँखों में पलकों का .
कभी तनहा होके भी मैं खुल के रो नहीं पाया ||
बहुत सोचा बहुत समझा मगर कुछ लिख नहीं पाया .
कवि कल्पनाओं से चाहत का घड़ा मैं भर नहीं पाया ||
मोहब्बत को दरिया गुजरे ज़माने के बहुत से लोग कहते हैं .
मगर मेरी मुट्ठी में रेत का एक कण नहीं आया ||
वो मानिन्द ख्वाबो का सौदा करता रहा मुझसे .
अपरिमित आंसू की दौलत से मैंने तेरा ख्वाब पाया है ||
कुछ लोग हैं कि मेरा भाव लगा देते हैं .
मैं तो हीरा हूँ मुझे वो थोथे के भाव चढ़ा देते हैं ||
हम कुछ कह न पायें , बस रोने के हालात बना देतें हैं.
अपनी लालच को वो दुनिया का दस्तूर बना देते हैं ||
विनय राज मिश्र ‘कविराज’
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