मेरी अभिव्यक्ति
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माँ गंगे तेरा गुणगान करूँ .
मैं मूरख अभिमानी अज्ञानी
कैसे तेरा महिमा गान करूँ .
दुनिया का प्रतिबिम्ब तुम्हारे चरणों में
कैसे मैं उसका संधान करूँ .
तुमसे मेरी सकल कला
अवशेष मात्र ‘मैं’ चरणों में तेरे दान करूँ.
गंगे तेरी लहरों की कुछ बूंदों से
कैसे तुझे अर्घ्य प्रदान करूँ .
सिंचित कर मुझ सूखे जड़ को
बिन चेतन कैसे तेरा गान करूँ .
बिन तटस्थ होकर मैं कैसे
तेरा अमृत पान करूँ .
बिन रेती में बैठे कैसे
मैं सांसो का स्वर्णिम अनुतान करूँ .
अधरों की अंजलि में भर शब्द-सुमन
मैं हर छण तुम्हे प्रणाम करूँ .
भीड़ भरी इस महफ़िल में
कैसे खुद की पहचान करूँ .
माँ गंगा बिन कृपा तुम्हारी
कैसे अपना नाम करूँ .
लिखने को तो ‘विनय’ गंगासागर लिख दूँ
पर मैं निशब्द कैसे तेरा गुणगान करूँ.
स्याही से शब्दों में कैसे
माँ गंगे तेरा गुणगान करूँ .
विनय राज मिश्र ‘कविराज’
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