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हो चले हैं रेत से रिश्ते अब….

मेरी अभिव्यक्ति
मेरी अभिव्यक्ति
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मेरी आँखों में कोई देखे न, ये गुजारिश मेरी .
उम्र भर की दौलत हम मोती अश्कों से लुटा देते हैं ||

सब लोग यहाँ अपने अपने फ़ायदे के लिए बिखर जाते हैं.
कैसे समेटूं सबको, मेरे हालात मुझे लाचार बना देते हैं ||

हो चले हैं रेत से रिश्ते अब,
मुट्ठी भरके पकड़ते हैं फ़िसल जाते हैं ||

हम अपनी दुनिया में मशहूर थे, मशगूल थे, फिर क्यूँ आये तुम ?
कुछ लोग हैं कि इन नन्ही सी खुशियाँ को भी घाव लगा देते हैं ||

लो फिर से रुख करते हैं अपनी राह अपनी मंजिल का .
‘विनय’ चलो जीते जी खुद अपनी कब्र बना लेते हैं ||

विनय राज मिश्र ‘कविराज’

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