घोटाले पर घोटाले इतने घोटाले तो कभी भी सामने नहीं आए. अब तो हर आम नागरिक को लग रहा होगा कि यदि टीआरपी चाहिए तो बस किसी भी नेता पर घोटाले के आरोप लगा दो और टीआरपी का हिस्सा बन जाओ. इस वाक्य को कहने का जरा भी यह मतलब नहीं है कि आज नेताओं पर जितने भी घोटाले के आरोप लग रहे हैं वो सब झूठे हैं बल्कि इस वाक्य को कहने के पीछे के अर्थ को समझना होगा कि क्या वास्तव में आरोप लगाने वाले समाज सेवक जनता के हित के लिए मंत्रियों के घोटालों का पर्दाफाश कर रहे हैं या फिर उनकी भी कोई राजनीतिक मंशा है.
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अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे के साथ मिलकर भ्रष्टाचार की लड़ाई शुरू की और इस भ्रष्टाचार की लड़ाई का असर यह हुआ कि अन्ना हजारे और टीम का नाम खबरों का हिस्सा बन गया पर लगता है कि अरविंद केजरीवाल को यह बात पसंद नहीं आई और उन्होंने यह फैसला ले लिया कि उनके और अन्ना के रास्ते अलग-अलग हैं. भले ही वो अपनी मंजिल को एक बताते आए हैं पर सच से कौन वाकिफ नहीं है. अरविंद केजरीवाल का कहना है कि उन्होंने जनता के हित के लिए राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला लिया है और यह पार्टी केवल आम जनता के हित के लिए कार्य करेगी. शायद इसलिए आजकल अरविंद केजरीवाल ‘मैं आम नागरिक हूं’ की टोपी के साथ नजर आ रहे हैं. पर सवाल यह है कि जो सदस्य अरविंद केजरीवाल का साथ दे रहे हैं वो कब तक साथ देने वाले है? क्या इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्यों के मन में कभी भी राजनीतिक मंशा जाग्रत नहीं होगी? यह सभी सवाल तब सामने आए जब पूर्व आईपीएस अधिकारी वाईपी सिंह ने आरोप लगाया कि महाराष्ट्र के लवासा प्रोजेक्ट के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के भतीजे और पूर्व डिप्टी सीएम अजित पवार ने 348 एकड़ जमीन गलत तरीके से लवासा कंपनी को दी. वाईपी सिंह अरविंद केजरीवाल की पार्टी के पक्ष में रहे हैं और उन्होंने साथ में यह भी कहा कि अरविंद केजरीवाल को लवासा प्रोजेक्ट के घोटाले के बारे में पता था पर फिर भी वो चुप हैं. वाईपी के भाषण के बाद यह जाहिर हो गया कि अब केजरीवाल की पार्टी में भी राजनीतिक मंशाए जागने लगी हैं और यह बात भी साफ हो गई कि अब अरविंद केजरीवाल की लड़ाई मुश्किल होने वाली है.
बेहतर विकल्प बनने में खासी मुश्किल
केजरीवाल ने जब अन्ना से अपने रास्ते अलग किए थे तो केजरीवाल के लिए मुश्किल था अपने आप को खबरों में बनाए रखना और मीडिया के माध्यम से अपनी राजनीतिक पार्टी का प्रचार कर पाना. पर केजरीवाल ने एक नया रास्ता खोज ही लिया घोटाले पर घोटाले का पर्दाफाश करना, चाहे कोई बड़े परिवार से जुड़ा राजनेता हो या फिर किसी बड़ी पार्टी का अध्यक्ष सबको आड़े हाथों ले लेना जिस कारण केजरीवाल खबरों में टीआरपी का हिस्सा बन गए. शायद अब यह बात वाईपी सिंह को खटकने लगी और अब मीडिया के एक वर्ग से भी यह आवाज उठने लगी है कि वाईपी सिंह भी वो ही खेल खेलना चाह रहे हैं जो अरविंद केजरीवाल ने खेला. यदि मीडिया के इस वर्ग की बात को सही मान लिया जाए तो ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या टीआरपी से राजनीति का खेल ज्यादा समय तक खेला जा सकता है. यदि टीआरपी से केजरीवाल और उनकी पार्टी के सदस्य ज्यादा समय तक राजनीति में अपनी पैठ नहीं बना पाए तो केजरीवाल और उनकी पार्टी के सदस्य ना तो राजनेता रहे जाएंगे और ना ही समाज सेवक बल्कि शायद भविष्य में उनका वजूद ही ओझल हो जाए. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अब भारतीय जनता को ऐसी पार्टी की जरूरत है जो उनके हित के लिए काम करे. भले ही उस पार्टी की अपनी कुछ राजनीति मंशा हो. ऐसे में सवाल यह है कि क्या अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी को 2014 के संसदीय चुनाव में भारतीय जनता के सामने एक बेहतर विकल्प के रूप में पेश कर पाएंगे?
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