Menu
blogid : 321 postid : 685763

आप का अभ्युदय भारतीय राजनीति में इतिहास का दुहराव है

अब जबकि ‘स्वराज’ के साथ आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल आए हैं यही शंका फिर से उठ खड़ी हो रही है. क्या ‘आप’ पार्टी के ‘स्वराज’ नारे के साथ, सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ आम आदमी की तरह अपने बीच सरकार की जड़ें महसूस कराते हुए यह ‘स्वराज क्रांति’ अपना आह्वान पूरा करने वाली साबित हो पाएगी या यह पहले से भी बड़ी एक और भ्रष्टाचारी खेप, एक नए विशालकाय रूप में खड़ी करने वाली साबित होगी? बहरहाल इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में छुपा है लेकिन कांग्रेस के लिए ‘सत्याग्रह’ और ‘स्वराज’ दोनों ही अवसान का सबब और भविष्य का सबक जरूर बने हैं.


aap-and-congressराजनीति की दिशा और दशा कब बदल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. भारतीय लोकतंत्र का अपना कोई मूल नहीं है. कई देशों के संविधान के अंश लेकर अपने लोकतंत्र का संविधान बनाने के मूल में अगर कुछ है तो वह है ‘क्रांति’! भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के फलस्वरूप आजाद भारत के लोकतांत्रिक मूल में एकमात्र ‘आंदोलन और क्रांति’ ही दिखाई देते हैं. आजादी की क्रांति ने ही भारतीय गणतंत्र और भारतीय लोकंतत्र को जन्म दिया और वही क्रांति समय-समय पर लोकतंत्र का पुनर्रूपण करती रही है. एक बार फिर क्रांति के दौर ने भारतीय लोकतंत्र को दस्तक दी है. देखना यह है कि इस क्रांति के फलस्वरूप भारतीय लोकतंत्र की भंगिमा क्या होती है और यह कितने और किस रूप में बदलता है.


आजादी के 60 दशकों में भारतीय लोकतंत्र ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. इन उतार चढ़ावों में भारतीय जनतंत्र ने जितनी समता-विषमताओं का सामना किया है उसके समरूप ही इसकी परिपाटी के साथ-साथ चलने वाले राजनीति दलों ने भी इसकी आंच महसूस की है. हालांकि प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस के लिए यह आंच सबसे ज्यादा प्रभावकारी रही है. कांग्रेस की नीति और राजनीति आम भारतीयों के लिए हमेशा ही लुभावनी रही है. नेहरू के शासनकाल से लेकर इंदिरा के शासनकाल, राजीव गांधी से लेकर सोनिया गांधी और अब एकदम नई पौध राहुल गांधी तक कांग्रेस की जड़ें इस लोकतंत्र में कहीं-न-कहीं आम जनों के बीच अपनी गहरी पैठ साबित करती रही हैं. लेकिन जैसा कि सभी जानते हैं राजनीति में निश्चित कुछ भी नहीं होता. जनों के इस तंत्र में जन हमेशा हाशिए पर दिखता रहा है लेकिन तंत्र ने जब भी उस पर हावी होने की कोशिश की है जन ने उसे उसकी जगह दिखा दी है और इसका जरिया हमेशा ‘क्रांति’ रही है. आश्चर्य की बात यह है कि आजादी की क्रांति में केंद्र भूमिका में रहा. कांग्रेस लोकतंत्र के नए आगाज की इस क्रांति में हमेशा निशाने पर रही है. अच्छी बात यह रही है कि उसके बाद भारतीय लोकतंत्र ने नई शुरुआत की है और कांग्रेस भी नया सवेरा की जरूरत समझते हुए संभलती है. पर बुरा भी यह रहा है कि हर क्रांति के अवसान के बाद खुशनुमा दौर के साथ-साथ उससे बड़ी क्रांति की वजहें भी बढ़ती चली जाती हैं.

अमेठी में कांग्रेस के लिए आगे कुआं पीछे खाई की स्थिति है


ArvindKejriwal1975 से पहले भारतीय राजनीति में पूर्णरूपेण कांग्रेस का दबदबा था. लोकतंत्र होकर भी अनकही रूप से कांग्रेस के रूप में एक प्रकार से राजतंत्र चल रहा था. 1975 से पहले भारत में कांग्रेस-रहित एक सरकार का गठन किसी रूप में काल्पनिक ही कहा जा सकता था. नेहरू-गांधी व्यक्तित्व से जुड़ी ‘भावुक भारतीय जनता’ के दिलों में कांग्रेस की इतनी गहरी पैठ थी कि वहां किसी और के लिए जगह बनाना संभव ही नहीं जान पड़ता था. शायद उस वक्त किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भविष्य में कभी कांग्रेस को टक्कर देती और कोई राजनीतिक पार्टी खड़ी होगी और उसे सरकार बनाने के लिए जनतंत्र अपना बहुमत देगा. इंदिरा गांधी के इमरजेंसी काल ने आजाद भारत के लोकतंत्र को पहला उबाल का मौका दिया और जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई के व्यक्तित्व के आलोक में ‘सत्याग्रह’ की क्रांति के साथ भारतीयों के दिलों में पैठ बनाती ‘जनता पार्टी’ की मजबूत अवस्था का उदय हुआ. 1975 में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कंग्रेस की इंदिरा सरकार के विरुद्ध ‘स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम वी.राज नारायण’ केस में इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी को दोषी मानते हुए 6 साल तक चुनाव लड़ने और सरकार बनाने से रोक लगाने के बाद विपक्षी जनता पार्टी तत्काल इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग करने लगी. इसी कड़ी में 25 जून, 1975 को दिल्ली में जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई की अगुआई में कांग्रेस के इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध रैली निकाली गई. रैली का नाम दिया गया ‘सत्याग्रह रैली’. इंदिरा की सरकार को बर्खास्त करने और भ्रष्टाचार-मुक्त एक लोकतंत्र की ‘मांग और नारे’ के साथ दिल्ली में यह रैली इंदिरा गांधी और कांग्रेस के एकछत्र राज के लिए अवसान का विषय और बाद इसका कारण भी बनी. न सिर्फ कांग्रेस बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए 1975 का वह ‘सत्याग्रह’ एक नए राजनीतिक काल के अभ्युदय का सबब और सारथी बना.


25 जून, 1975 की ‘सत्याग्रह रैली’ और उसके ठीक बाद 26 जून, 1975 के दिन लोकतंत्र का काला अध्याय, लगभग 2 सालों तक चला इमरजेंसी काल भारतीय लोकतंत्र कभी भूल नहीं सकता. अपनी सत्ता छिनती देख इंदिरा गांधी ने आश्चर्यजनक रूप से संविधान में संशोधन करते हुए इमरजेंसी की घोषणा कर दी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विश्वस्त नेता के हाथों राजतंत्र के दिन गुजारते हुए जनता ने अपना गुस्सा 1977 के लोकसभा चुनाव में दिखाया. पहली बार इंदिरा गांधी रायबरेली से बुरी तरह हार गईं और पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में कांग्रेस से इतर जनता पार्टी की सरकार बनी. उस लोकसभा चुनाव में जहां जनता पार्टी का चुनावी मुद्दा था 30 सालों से चली आ रही कांग्रेस की सरकार से अलग कांग्रेस-रहित एक सरकार बनाकर एक मजबूत लोकतंत्र की नींव रखना. विदेश नीति में मजबूत मानी जाने वाली कांग्रेसी इंदिरा गांधी सरकार घरेलू मुद्दों गरीबी, बेरोजगारी आदि जगहों पर नाकाम साबित हुई थी. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी ने इसके उन्मूलन और लोकतंत्र की नई नींव रखने की क्रांति का आगाज किया और कामयाब भी रही.

अब केवल ‘राजमाता’ ही इनका उद्धार कर सकती हैं


परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ भले ही मोरारजी देसाई की सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा कर पाने में सफल नहीं रही लेकिन दिल्ली में 1975 के ‘सत्याग्रह’ आंदोलन ने कांग्रेस को जनतंत्र में उसकी वास्तविक जगह दिखाई और जनता को उसकी ताकत का एहसास कराया. 1975 के उस ‘सत्याग्रह’ आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र का एक नया अध्याय शुरू किया. हालांकि इस फेज में भी अधिकांशत: कांग्रेस ही मुख्य शासक राजनीतिक दल में रही लेकिन विपक्ष की एक नई सशक्त भूमिका जरूर मुखर हुई. जनता के मत के साथ सरकार में आना अब इतिश्री न मानकर उसके बाद के उत्तरदायित्व और चुनौती की रूपरेखा इस ‘सत्याग्रह’ आंदोलन ने ही तैयार की. कांग्रेस के सामने अब नेहरू-गांधी के नाम पर सत्ता में हमेशा बने रहने की खुशफहमी छंट चुकी थी और चुनौती के रूप में मजबूत विपक्ष भारतीय जनता पार्टी (जनता दल का बाद में भारतीय जनता पार्टी में विलय हो गया) आ चुकी थी और यह सब किया था 1975 के ‘सत्याग्रह’ ने.


indian-politicsआज एक बार फिर वह दौर वापस आ गया लगता है. 2004 में नए सिरे से उठते हुए सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी अचंभित पारी शुरू की. कांग्रेस द्वारा देश की बहू बताए जाने के बावजूद विपक्ष ने विदेशी के मुद्दे पर सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोक ही लिया. शायद इसमें उनकी सोच कांग्रेस को कमजोर करने की रही होगी लेकिन सोनिया ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर सारे विवाद न सिर्फ मिटा दिए बल्कि कांग्रेस के लिए अगले चुनाव के लिए सीटें भी सुरक्षित कर दीं और निर्विवाद रूप से अगली पारी में दुबारा कांग्रेस सरकार में आई भी. पर इस दूसरी पारी के अंत में कांग्रेस और भारतीय लोकतंत्र दोनों के लिए ही स्थिति कुछ 1975 जैसी जान पड़ती है. अगर तुलनात्मक मुद्रा में जाएं तो 1975 में जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के ‘सत्याग्रह’ की जगह आज अन्ना हजारे के ‘भ्रष्टाचार हटाओ, जनलोकपाल लाओ’ आंदोलन से उपजी अरविंद केजरीवाल की ‘स्वराज आंदोलन’ ने ले ली है. इसका मुद्दा भी भ्रष्टाचार है, शुरुआत भी दिल्ली से हुई है और इसकी गति भी अहिंसक लेकिन सर्वव्यापक है. जनता के भारी समर्थन के साथ यह परंपरागत राजनीति को समूल हटाकर जनता के हित और सत्ता के विकेंद्रीकरण की बातें करता है. 1975 का ‘सत्याग्रह’ अगर आजादी के बाद पहली बार अपनी ही सरकार के विरुद्ध, 30 सालों से सत्ता में रहे कांग्रेस की एकसत्तात्मक स्थिति को खत्म करने का अहिंसक आंदोलन था जिसमें आजादी की अहिंसक क्रांति की झलक थी तो यह ‘स्वराज’ भी लगभग 70 साल की प्रौढ़ावस्था में पहुंच चुके भारतीय लोकतंत्र को अपने बड़प्पन का एहसास कराता हुआ अपने अनुभवों से सीख लेकर नई नीति गढ़ने का आह्वान कर रहा है. इसमें केवल कांग्रेस या दस सालों से चली आ रही यूपीए सरकार की भ्रष्टाचारी नीतियों का दमन नहीं बल्कि समूल राजनीतिक नीतियों की समीक्षा कर लोकतंत्र में केवल लोकलुभावन वादों के साथ राजनीति करने की परंपरा को समाप्त करने का आह्वान है. इसमें पक्ष-विपक्ष से इतर, जाति-धर्म-समुदाय से अलग केवल जनकल्याण का भाव है.


‘स्वराज’ के आह्वान का स्वागत करते हुए दिल्ली ने लोकतंत्र में प्रौढ़ता के साथ मिले अपने अनुभव आधारित निर्णय क्षमता के उपयोग के आगाज का आभास दे दिया है. ‘आप’ की बढती लोकप्रियता और देश में इसकी हो रही चर्चा 1975 के ‘सत्याग्रह’ के बाद की स्थिति बार-बार याद दिला रही है. कुछ अंजाम (दिल्ली चुनाव परिणाम) दिख चुके हैं, कुछ (लोकसभा चुनाव परिणाम) अभी दिखने बाकी हैं.

आर्टिकल 370 भारतीय लोकतंत्र पर एक धब्बा है


1975 का ‘सत्याग्रह’ भारतीय लोकतंत्र के लिए अगर ‘मील का पत्थर’ है जहां से भारतीय राजनीति ने नया मोड़ लिया, तो 2013 का यह ‘स्वराज’ एक और ‘मील का पत्थर’ है. पर एक और बात जो वहां थी वह यह कि भ्रष्टाचार खिलाफत के साथ उस ‘स्वराज क्रांति’ ने बड़े पैमाने पर ‘भ्रष्टाचारियों’ की नई बड़ी फौज तैयार की. जो दूसरे को बस खाते हुए देख सकते थे, सत्ता में आने का अवसर पाकर अब उन्हें भी खाने का मौका मिला था. दलगत नीतियों में यह बराबरी का मौका था उनके लिए लेकिन राजनीति और लोकतंत्र के लिए भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की फौज बनने का बड़ा खतरा जो आज अपने असली रूप में नजर आ रही हैं. इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसे नष्ट करना कहीं बहुत मुश्किल जान पड़ता है. अब जबकि ‘स्वराज’ के साथ आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल आए हैं यही शंका फिर से उठ खड़ी हो रही है. क्या ‘आप’ पार्टी के ‘स्वराज’ नारे के साथ, सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ आम आदमी की तरह अपने बीच सरकार की जड़ें महसूस कराते हुए यह ‘स्वराज क्रांति’ अपना आह्वान पूरा करने वाली साबित हो पाएगी या यह पहले से भी बड़ी एक और भ्रष्टाचारी खेप, एक नए विशालकाय रूप में खड़ी करने वाली साबित होगी? बहरहाल इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में छुपा है लेकिन कांग्रेस के लिए ‘सत्याग्रह’ और ‘स्वराज’ दोनों ही अवसान का सबब और भविष्य का सबक जरूर बने हैं.

यह ढोंग कब तक काम आयेगा?

जन लोकपाल का लॉलीपॉप सबको चाहिए

ब्रांडेड झाड़ू का जमाना है

AAP In Indian Politics And History Of Congress

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh