बदलावों की कड़ी में अगर पहला नजारा अच्छा हो तो अक्सर उसी से प्रभावित होकर बाद के बदलावों की ईमानदार समीक्षा (नकारात्मक या बुरे परिणामों के साथ) करने से हम बचना चाहते हैं. पर आइने में अगर अभी सब कुछ खूबसूरत नजर आ रहा हो तो इसका आशय यह नहीं कि यह हमेशा खूबसूरत ही रहेगा. इसके कुछ भयावह दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं. 17वीं सदी का उत्तरार्ध और 18वीं सदी का पूर्वार्ध भारतवर्ष के इतिहास में बड़े बदलाव का वक्त रहा. उस वक्त हालांकि यह बदलाव बहुत लुभावने रूप में सामने था तो किसी ने कालांतर में इसके बुरे परिणामों के विषय में तब सोचा नहीं होगा. यह एक ऐसा वक्त था जब अंग्रेजों के साथ शुरू हुआ मसालों का व्यापार विश्व में खासा महत्वपूर्ण बन गया था. उस वक्त के भारतवर्ष के लिए यह एक बड़ी और अच्छी खबर थी लेकिन किसी ने भी तब उसके कालांतर के नकारात्मक प्रभावों की समीक्षा नहीं की. अगर की होती तो शायद अपनी ही जमीन पर हम 200 सालों तक उपनिवेशवाद के चंगुल में न फंसे होते.
व्यापार के लुभावने प्रस्तावों के साथ 17वीं सदी के उत्तरार्ध में ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल में फंसे भारतीय शासकों ने तब इसे व्यापार-विस्तार, लाभ कमाने और विकास करने का अवसर माना. आधुनिक अंग्रेजी रहन-सहन, पहनावा आदि के प्रति एक आकर्षण में अगर तब हम नहीं फंसे होते तो शायद आज भारतीय इतिहास कुछ और होता. एक सदी जो हमने अपने ही अधिकारों को पाने के संघर्ष में गुजार दिया, उस एक सदी में हमने अपने बदलावों की अगर संतुलित समीक्षा की होती तो शायद ये सोने की चिड़िया आज गरीबी और बदहाली के जाल में फंसी होकर बदहाल न हो रही होती.
कुछ लोगों का मानना है कि ब्रिटिश राज ने भले ही भारत में उपनिवेशवाद कायम किया लेकिन भारत को विकास के रास्ते पर ले जाते हुए रेल, टेलीग्राम, डाकघर आदि की कई व्यवस्थाएं दीं जो शायद उस अवांछित उपस्थिति के बिना संभव नहीं था. पर यह भी देखा जाना चाहिए कि धन-खनिज संपदा से परिपूर्ण इस धरती पर अगर हमने ‘बाहरी तत्वों से प्रभावित होने की परंपरा’ का पालन न किया होता तो विश्व के अन्य देशों के साथ हम भी विज्ञान और तकनीक के बढ़ने के साथ अपने देश को भी स्वयं ही विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए अग्रसर होते. उस स्थिति में शायद हम अधिक विकसित होते. यहां ‘बाहरी तत्वों से प्रभावित होने की परंपरा’ का खास अर्थ है. शायद हमारा यह औपनिवेशिक इतिहास उदाहरण है इस बात का कि हम खूबसूरत आवरण में किसी भी प्रकार के बदलाव को बिना किसी भेदभाव और बिना संपूर्ण समीक्षा के स्वीकार करने के आदी हैं…शायद यह त्वरित प्रभावित होने की हमारी परंपरागत की आदत को इंगित करता है जो पूर्वजों से वंशानुगत चला आ रहा है और आज भी विद्यमान है.
अगर अतीत को भूलकर आगे बढ़ने की बात करें तो शायद आज के संदर्भ में भारत में ब्रिटिश कॉलोनियल का उल्लेख उद्देश्यहीन जान पड़े लेकिन जब बात अतीत के अनुभवों से सबक लेकर विकास की राह पर आगे बढ़ने की होगी इसका उल्लेख आज भी उल्लेखनीय है. मुद्दा राजनीतिक हो या सामाजिक लेकिन अनुभव आधारित ज्ञान की हमेशा जरूरत होगी. हां, कुछ आदतें जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुवांशिक रूप लेकर चलने लगती हैं अक्सर अनुभवों के महत्व को हाशिए पर डाल देती हैं. निश्चय ही आज भारतीय राजनीति का माहौल भी कुछ ऐसा ही है जो कहीं भविष्य में किसी बड़े खतरे की आशंका उत्पन्न करती है.
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनीति बहुत आसान किसी के लिए नहीं है. न जनता, न जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले यह कह सकते हैं कि अपना प्रतिनिधि चुनना या जनता द्वारा प्रतिनिधि के तौर पर चुना जाना उनके लिए आसान है. कहीं-न-कहीं आम जनता और राजनयिक दोनों ही नीतियां बनाने और उसे दृश्य में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं वरना विकास की दौड़ में दोनों ही पीछे रहेंगे. चुने हुए नेता अगर नीतिगत काम नहीं करेंगे तो जनता को भी दिखाना है कि हम आपको बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं और नेता को भी अगर दुबारा प्रतिनिधित्व करना है तो जनता को बताना पड़ेगा कि वह उनके लिए अन्य किसी से बहुत बेहतर और वास्तव में उनके हित में सबसे बेहतर हैं. सामान्य सी दिखने वाली यह घटना अपने गूढ़ रूप में बेहद तकनीकी है. दोनों ही ओर (जनता या प्रतिनिधि) से एक गलत फैसला भविष्य का खतरा पैदा करती है. वर्तमान राजनीति को देखें तो उपर्युक्त सारे प्रसंग यहां प्रासंगिक हो गए हैं.
हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी का जिस प्रकार उदय और उत्थान हुआ है एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए किसी भी लिहाज से सही नहीं माना जा सकता. अंग्रेजी में एक कहावत है ‘ओल्ड इज गोल्ड’ मतलब परिपक्वता हमेशा बहुमूल्य होगी. परंपरागत भारतीय राजनीति में महान राजनीतिज्ञों की कमी नहीं है लेकिन अनुभवों की आंच में तपकर उन्होंने यह मुकाम पाया और उसके बाद ही जनता ने भी उन्हें स्वीकारा. कल के जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद से लेकर बाद के अटल बिहारी वाजपेयी तक हर किसी ने पहले अपनी काबिलियत, अपनी विश्वसनीयता साबित की. राजनीतिक पार्टियों के लिए भी यही बात लागू होती है. कांग्रेस आजादी के संघर्ष में पहले ही अपनी विश्वनीयता साबित कर चुकी थी इसलिए देश ने आजादी के बाद लगातार कई वर्षों तक उसे शासन का एकाधिकार दिया. भाजपा ने भी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनने के लिए विपक्ष में रहकर कई वर्षों तक अपनी विश्वसनीयता साबित की तब जाकर मुश्किल से सत्ता में आने की स्थिति में पहुंच पाई. आज भारतीय राजनीति की सनसनी बन चुकी आम आदमी पार्टी इसमें सबसे अलग है. महज एक साल पुरानी यह पार्टी मात्र कुछ महीनों में दिल्ली और देश में न सिर्फ अपनी पहचान बना चुकी है बल्कि क्षेत्रीय मुद्दों को आधार बनाकर दिल्ली का दिल जीतकर सत्ता में भी आ चुकी है.
भले ही कुछ लोग इसे कुछ वक्त की लहर मानें लेकिन यह लहर सबसे बड़े लोकतंत्र पर किसी बड़े खतरे की ओर इशारा करती है.
क्रमश:………………….
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