ओबामा(Barack Obama) के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने से भारत पर क्या प्रभाव पड़ सकता है यह बात चिंतन योग्य है. दो देशों के भूराजनीतिक हालात और अर्थव्यवस्था पर अमेरिका का नजरिया मायने रखता है. भारत, पकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान जैसे देशों की राजनीति पूरी तरह से अमेरिका के ऊपर निर्भर करती है. इसके अलावा तकनीकी और व्यापारिक स्तर पर भी ओबामा का दूसरी बार राष्ट्रपति बनना एक घटक का काम करेगा. रोजगार और विदेशी व्यापार पर ओबामा का निरंतर बोलना भारत के लिए एक चिंताजनक बात होगी. इसके साथ-साथ भारत के पड़ोसी देशों को सैन्य सहायता प्रदान करना भी भारत के लिए कहीं खतरे की आहट तो नहीं !
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अमेरिका की दोहरी रणनीति
अमेरिका जहां एक तरफ भारत के साथ होने का नाटक कर रहा है वहीं भारत के पड़ोसी देशों के साथ उसके सबंध भी खुद यह प्रश्न खड़े करते हैं कि क्या वो पूरी तरह से भारत का साथ दे रहा है या फिर यह मात्र ढोंग है. पाकिस्तान के साथ सैन्य समझौता और पकिस्तान के साथ चीन का सबंध कहीं भारत के लिए भय का विषय ना बन जाए. भारत ऐसी मजबूरी में है जिसमें वो पूरी तरह से अमेरिका पर विश्वास भी नहीं कर सकता और न ही उससे अलग ही हो सकता है.
विकास किस रूप में होगा
सब की निगाहें इसी बात पर ठहरी हैं कि ओबामा के फिर से राष्ट्रपति बनने से आर्थिक तौर पर क्या फर्क पड़ेगा. क्या ओबामा से कोई सकारात्मक पहल की आशा की जा सकती है. जहां तक आउटसोर्सिंग एक मुद्दा बन सकता है क्योंकि चुनाव पूर्व ओबामा इसके पक्ष में ज्यादा नहीं दिखाई दे रहे थे और शायद यह भारत के लिए अच्छा नहीं होगा. जहां तक सामरिक साझेदारी के पक्ष में ओबामा दिखते हैं पर आगे की विकास योजना को लेकर भारत के पक्ष में मात्र यह काफी नहीं होगा. देखने की बात यह होगी कि जिस तरह की योजना भारत को और ज्यादा विकसित बनाने में मदद करेगी उसके पक्ष में ओबामा क्या कदम उठाते हैं.
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कुछ भारत के पक्ष में
ओबामा की कुछ नीतियां भारत के पक्ष में जरूर हैं जैसे कि ओबामा का यह मानना है कि अफगानिस्तान के विकास और परिवर्तन में भारत का काफी योगदान होना चाहिए और कश्मीर को लेकर एक गंभीर चिंतन के बाद उनका कहना है कि कश्मीर में बाहरी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. यह कदम भारत के अनुकूल है इस मुद्दे पर भारत भी यह मांग करता रहा है कि कश्मीर पर बाहर से कोई टीका-टिप्पणी नहीं होनी चाहिए. भारत और ईरान के संबंध अच्छे दिशा में जा रहे हैं और अमेरिका का ईरान के प्रति कड़ा रुख ना अपनाना भी भारत को धर्मसंकट से बचाने में एक बड़ा कदम होगा.
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