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आदर्शवाद के सहारे कैसे जमेगी “राजनीति”

एक आदर्शवादी राजनीति के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ जमा कर देश बदलने का सपना वैसे तो सोचने में काफी आसान लगता है किंतु राजनीति के भंवर में व्यवहारिक कदमों की जरूरत ज्यादा होती है. अरविंद केजरीवाल की मंशा चाहे कितनी भी सही हो लेकिन पूरे देश के सामने एक बेहतर विकल्प के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करना और जमीनी स्तर पर सांगठनिक ढांचा खड़ा करना उनके लिए बेहद ही कठिन है वह भी तब जबकि उनके साथ अन्ना हज़ारे भी नहीं हैं. क्या अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनैतिक क्षितिज में चमकते सितारे बन सकेंगे या केवल एक उल्का पिंड बन कर क्षणिक चमक पैदा कर लुप्त हो जाएंगे.


kejriwal politicsराजनीतिक मैदान में अपनी पार्टी बनाकर उतरना एक बात है और अपनी बनाई गई पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में सामने लाकर सशक्त विकल्प बना देना बिलकुल अलग बात है. भारतीय राजनीति का इतिहास से लेकर वर्तमान तक का अधिकांश समय कुछ ऐसा रहा है कि कांग्रेस पार्टी भारत की केन्द्रीय सत्ता में रही है और बीजेपी राष्ट्र्रीय स्तर पर अपने आप को एक विरोधी पार्टी के रूप में स्थापित कर पाई है. बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाने के लिए लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं को भी कई साल लग गए. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जिन लोगों ने अभी तक अपनी पार्टी के नाम पर भी विचार नहीं किया है क्या ऐसी पार्टी 2014 के संसदीय चुनाव में एक बेहतर विकल्प के रूप में उभर पाएगी.


‘मैं अन्ना हूं’ का नारा बदलकर ‘मैं आम नागरिक हूं’ का नारा बन गया. यहां तक कि ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपी बदलकर ‘मैं आम नागरिक हूं’ की टोपी बन गई. आम जनता तक पहुंचने के लिए आम नागरिक बनना जरूरी था यह बात तो अरविंद केजरीवाल को समझ में आ गई पर वह शायद यह भूल गए कि आम नागरिक का नारा 2014 के संसदीय चुनाव तक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरने के लिए काफी नहीं है.


अरविंद केजरीवाल की राजनीति एक आदर्शवादी राजनीति है और उनकी मंशा अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर तक लेकर जाना है पर समय कम है. जब तक अरविंद केजरीवाल और अन्ना का साथ था तब तक अरविंद केजरीवाल को खबरों में जगह मिल रही थी पर जब अन्ना और केजरीवाल के रास्ते अलग-अलग हो गए तो अरविंद केजरीवाल के लिए खबरों में बने रहना मुश्किल हो गया. अरविंद केजरीवाल के पास अपनी राजनीतिक पार्टी का प्रचार करने का रास्ता सिर्फ मीडिया थी इसी कारण केजरीवाल ने हर रोज ऐसे घोटालों का खुलासा करना शुरू कर दिया जिससे कि उन्हें खबरों में जगह भी मिली और वो अपनी भावी पार्टी का प्रचार भी कर सके पर क्या अरविंद केजरीवाल का यह प्रचार काफी होगा 2014 के संसदीय चुनाव में जीत हासिल करने के लिए. हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में फतह हासिल कर लें पर दिल्ली में फहत हासिल करने से केजरीवाल अपनी पार्टी को 2014 के संसदीय चुनाव तक एक बेहतर विकल्प के रूप में नहीं उभार सकते हैं. इस बात में कोई शंका नहीं है कि आज भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक वातावरण तैयार हो चुका है. हर आम नागरिक महंगाई और भ्रष्टाचार से पीड़ित है ऐसे में अरविंद केजरीवाल ने अपनी भावी पार्टी को भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी का नाम तो दे दिया पर यह भी सच है कि अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार विरोध के सहारे राजनैतिक मैदान में ज्यादा समय तक टिके नहीं रह सकते हैं. केजरीवाल के निःशुल्क शिक्षा चिकित्सा के वायदे भी काफी पुराने हैं. आम जनता भारतीय राजनेताओं के मुंह से ऐसे वादे सुनने की आदी हो चुकी है ऐसे में बहुत मुश्किल है कि आम जनता अरविंद केजरीवाल के वायदों पर विश्वास करेगी. केजरीवाल का एक वायदा तो काफी हैरान करने वाला है कि उनकी भावी पार्टी के उम्मीदवारों के चुनाव भी आम जनता ही करेगी. ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि यदि आम जनता अरविंद केजरीवाल पर विश्वास कर भी लेती है तो क्या अरविंद केजरीवाल की पार्टी के संभावित उम्मीदवारों जैसे प्रशांत भूषण, शांति भूषण, मनीष सिसौदिया, कुमार विश्वास आदि पर विश्वास कर पाएगी. अरविंद केजरीवाल को यह समझना होगा कि दो घरों में जाकर बिजली कनेक्शन जोड़ देने से पार्टी का प्रचार तो किया जा सकता है पर पार्टी को राष्ट्रीय स्तर तक ले जाना काफी मुश्किल है.


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