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नीतीश-आडवाणी की दोस्ती ही तो संघ चाहता है

bjp Nitish and advani in hindiराजनीति की एक परंपरा है ‘यहां कुछ भी संभावित और निश्चित’ नहीं होता. राजनीति में कब क्या हो इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता. यह वह अनिश्चित दुनिया है जहां कोई किसी का दोस्त या दुश्मन नहीं होता. राजनीतिक फायदे-नुकसान की गरज से लोग दोस्त या दुश्मन बनते हैं पर हमेशा के लिए नहीं. आज का राजनीतिक माहौल अप्रत्यक्ष रूप से कुछ ऐसी ही भविष्यवाणी कर रहा है.


कल 24 सितंबर को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में भाजपा के ‘भीष्म पितामह’ कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी और मोदी के नाम पर भाजपा से गठबंधन तोड़ने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गर्मजोशी से मिलते नजर आए. मीडिया के लिए यह बड़ी खबर थी लेकिन राजनीतिक गलियारे में भी इसकी चर्चा है. चर्चा की वजह भी है. नीतीश कुमार जो भाजपा से सीधे तौर पर अपनी नाइत्तेफाकी दिखाते हुए अलग हो चुके हैं वह अगर नाराज रहकर भी भाजपा के साथ रहने वाले लाल कृष्ण आडवाणी से मिलते हैं तो राजनीतिक हलकों में कयासों के बाजार गर्म होंगे ही.

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bjp Nitish and advani in hindiआडवाणी और नीतीश का यूं मिलना जैसे उनकी पार्टियां पहले की तरह साथ-साथ ही हों कई संभावनाओं की ओर इशारा करती हैं हालांकि यह पहले ही हमने कहा है कि राजनीति में संभावनाओं की कोई जगह नहीं होती. पर गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा के भीष्म पितामह इतने बुरे हालात में भी भाजपा से दूर नहीं गए और लाख मनमुटावों के बावजूद आडवाणी ने आरएसएस और भाजपा की बातें मानी हैं. ऐसे में नीतीश जो भाजपा के नए ‘मोदीमय रवैये’ में शामिल होने से साफ इनकार करते हुए भाजपा और संघ को आघात देते हुए गठबंधन तोड़ने तक की जुर्रत कर बैठे, से आडवाणी मिलते हैं तो इसका एक मतलब ये हो सकता है कि यह मिलन आडवाणी का अपनी पार्टी में खुद के घटते कद से हो रही घुटन का नतीजा हो. ऐसा लगता है कि पार्टी द्वारा अपनी खिलाफत से आडवाणी इतने खफा हैं कि पार्टी के विरोधियों से भी मिलने में उन्हें कोई गुरेज नहीं. एक और भी नजरिया है जो इस वाकए को किसी और ही राजनीति का हिस्सा बनाती है.


कहें या न कहें लेकिन वास्तविकता यही है कि मोदी कहीं न कहीं भाजपा के लिए गले की फांस बन गए हैं. मोदी नाम को जहां संघ का संरक्षण है भाजपा इस नाम के साथ एकदम अकेली पड़ती दिखती है. चुनाव सिर पर है. पिछले कुछ दशकों के आंकड़ों पर नजर डालें तो किसी भी पार्टी के लिए लोकसभा चुनावों में अकेले बहुमत हासिल करना मुश्किल रहा है. ऐसे में गठबंधन ही सरकार बनाने का रास्ता नजर आता है. भाजपा यूं ही मोदी की सांप्रदायिक छवि के साथ अपने पक्ष में चुनाव परिणामों के लिए संशय में है. अगर पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती भी है तो भी बहुमत के साथ चुनाव जीतने की संभावना भाजपा तो क्या किसी भी पार्टी के लिए दूर की कौड़ी है. रहा गठबंधन का सवाल वह तो पार्टी तब करेगी जब अन्य पार्टियां उनके साथ आना चाहेंगी. मोदी के नाम से हर पार्टी भाजपा से किनारा कर रही है.

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इसके अलावे एक और बात यह भी है कि भाजपा को गठबंधन के लिए ज्यादा सीटों की जरूरत पड़ सकती है. नीतीश के पास ये सीटें हो सकती हैं और उस स्थिति में वे भाजपा के खेवनहार बन सकते हैं. नीतीश का भाजपा से कोई राजनीतिक बैर नहीं है. भाजपा से उनके किनारे का एकमात्र कारण मोदी ही रहे हैं. आडवाणी के लिए केवल मोदी ही उनके दुख का कारण हैं. इसलिए हो सकता है संघ, दुश्मन का दुश्मन दोस्त की राजनीति खेलते हुए आडवाणी के इस दुखी छवि से नीतीश को वापस भाजपा के करीब लाना चाहता हो. इतना तो तय है कि आडवाणी संघ नहीं छोड़ेंगे. यह भी तय है कि इतनी मेहनत से सींचे भाजपा को भी वे मोदी के नाम से बिखरने के लिए नहीं छोड़ देंगे. ऐसे में हो सकता है कि संघ यह चाहता हो कि आडवाणी अपनी दुखी छवि से बाकी के राजनीतिक दलों से पैदा हुई खाई पाटें जिसका बड़ा मोहरा नीतीश हों. 2014 के चुनावों में जब पार्टियां सीटों का गणित सॉल्व कर रही होंगी नीतीश-आडवाणी की दोस्ती उनके बड़े काम आ सकती है.

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BJP Nitish and Advani in Hindi

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