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लूटने का अवसर नहीं मिला इसलिए खिलाफ हैं !!

पिछले दिनों कोयला घोटाले में केन्द्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) की विवादास्पद भूमिका सामने आने के बाद यह मसला एक बार फिर गर्मा गया है कि जल्द से जल्द सीबीआई को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाना चाहिए. क्योंकि सीबीआई की कार्यप्रणाली में जब सरकारी नुमाइंदों का दखल बढ़ने लगता है तो उसका सीधा और नकारात्मक प्रभाव उसकी निष्पक्षता पर पड़ता है, जोकि देशहित के खिलाफ है.



उल्लेखनीय है कोलगेट घोटाले के चलते सीबीआई यूपीए सरकार के ही विरोध में जांच आगे बढ़ा रही है. सामान्य जांच में सीबीआई सरकार के साथ सहयोग बनाकर जांच आगे बढ़ाती है लेकिन जबकि यह जांच स्वयं सरकार के ही खिलाफ थी इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही सीबीआई को निर्देशित कर दिया था कि सरकार से पूरी तरह निष्पक्ष रहकर जांच की जाए लेकिन केन्द्रीय जांच एजेंसी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को दरकिनार कर सरकारी सदस्यों के साथ ही जांच रिपोर्ट साझा की. सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना का यह मामला सरकार के लिए कोलगेट मामले से भी कहीं ज्यादा घातक सिद्ध हो सकता है और इसके दायरे में शीर्ष नेताओं के साथ-साथ भारत के प्रधानमंत्री स्वयं भी आ सकते हैं.


रिमोट से चलने वाला खिलौना देश चला रहा है !!

सीबीआई को अपने नियंत्रण में रखने वाली सत्ताधारी पार्टी जहां सीबीआई की राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्ति को शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए घातक मानती है इसीलिए अपने अधीन रखने के लिए पैरवी करती हैं वहीं विपक्षी दल फिलहाल तो यह कहकर सीबीआई को राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए हो हल्ला मचा रहे हैं कि सत्ता पक्ष सीबीआई का फायदा अपने हितों की पूर्ति के लिए उठा रहा है, लेकिन जैसे ही वो खुद सत्ता में आएंगे उनके सुर बदलने लगेंगे.


घोटाले का माल पचाना आसान भी नहीं है

उल्लेखनीय है कि राजग के शासनकाल में जब लालकृष्ण आडवाणी (जो अब विपक्ष में हैं) ने उप प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला था तब उन्होंने भी सीबीआई को अपने शिकंजे में रखने की पूरी-पूरी कोशिश की थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जांच एजेंसी को अपने नियंत्रण से अलग ना होने देने में काफी समझदारी दिखाई. अटल बिहारी वाजपेयी क्या कोई भी राजनैतिक नुमाइंदा जब सत्ता में होता है तो कभी भी जानबूझकर केन्द्रीय जांच एजेंसी को अपने नियंत्रण से मुक्त नहीं होने दे सकता.


हम भी पाकिस्तानियों से कम नहीं

पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने अपने शासनकाल में सीबीआई का मनचाहा प्रयोग हवाला केस के दौरान किया. इस केस में कांग्रेस पार्टी के ही उनके कुछ प्रतिद्वंदी शामिल थे. सीबीआई का यह दुरुपयोग इतना स्पष्ट और साफ था कि सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस वर्मा ने इस मसले से संबंधित जनहित याचिका को ही अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था.



सबसे दुखद बात तो यह है कि 1990 के मध्य से लेकर अब तक कोई भी केन्द्रीय सरकार या प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों और पार्टी के साथ को लेकर इतना सशक्त या आश्वासित नहीं रहा कि वह अपने ही सदस्यों के खिलाफ आवाज उठा पाए. न्यायिक प्रणाली के होने से बस जनहित याचिका दायर करने वालों को अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं के खिलाफ आवाज उठाने का मौका मिलता है लेकिन जिस सरकार या पार्टी द्वारा घोटाले या अनुशासनहीनता हो रही है उसमें किसी भी प्रकार के सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि शीर्ष नेतृत्व के पास अपने ही लोगों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं होती.


कोयले की कालिख से काली है राजनीति

हाल ही में जब लोकपाल का मुद्दा ऊफान पर था तब सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के विरोध में ही आवाज उठा रहा था. जबकि ऐसा पहली बार देखा गया जब पक्ष और विपक्ष एक ही बात पर सहमत थे.



राजनैतिक हस्तक्षेप और आरोपों के बाद यह कहना गलत नहीं होगा कि जब न्यायिक तौर पर केन्द्रीय जांच एजेंसी को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाएगा तो उसकी कार्यप्रणाली में काफी हद तक सुधार देखा जाएगा.



आज पक्ष को फंसता देख विपक्ष हल्ला मचा रहा है लेकिन सिर्फ इसलिए कि विपक्षी दल भ्रष्टाचार के विरोध में आवाज उठा रहे हैं हम उन्हें अपना हितैषी नहीं मान सकते क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बल्कि कांग्रेस को मिले फायदे के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. जब उनकी बारी आएगी तो वह भी भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकेंगे. इसीलिए आज सत्ता को बदलने की नहीं बल्कि व्यवस्था को बदलने की जरूरत है और यह तभी होगा जब हर जांच एजेंसियों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाएगा.


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