कोयला घोटाला सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने यह फंदा इतनी जोर से जकड़ा है कि इससे बच पाना बहुत कठिन होता जा रहा है. कोयला आवंटन से जुड़ी स्टेटस रिपोर्ट में हुई छेड़खानी से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को दोबारा हलफनामा दायर करने को कहा था और साथ ही यह भी आदेश दिया था कि वह उन सभी व्यक्तियों के नाम को भी साझा करे जिन्हें यह रिपोर्ट दिखाई गई थी और जिनके कहने पर इस रिपोर्ट में बदलाव किए गए थे. उल्लेखनीय है कि 8 मार्च को ही सीबीआई द्वारा यह रिपोर्ट केन्द्रीय कानून मंत्री के अलावा कई सरकारी वरिष्ठों से साझा कर ली गई थी लेकिन 12 मार्च को जब सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में सीबीआई से पूछा तो केन्द्रीय जांच एजेंसी ने साफ इंकार कर दिया. सवालों और विभिन्न आरोपों से घिरने के बाद जहां अब तक कोयला आवंटन में हुए घोटाले की आंच यूपीए सरकार को ही परेशान कर रही थी वहीं अब जिस जांच एजेंसी के हाथ में इस मामले की जांच करना था पहली गाज उसी पर गिरी है.
सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरेन रावल ने ही सुप्रीम कोर्ट को यह बताया था कि इस रिपोर्ट की कोई भी जानकारी सरकार से साझा नहीं की गई है, जबकि असल में ऐसा नहीं था. हकीकत सामने आने के बाद यह मसला विवादित हो गया जिसके परिणामस्वरूप हरेन रावल को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. उल्लेखनीय है कि हरेन रावल इस पूरे प्रकरण में अपना पद गंवाने वाले पहले व्यक्ति भी बन गए हैं.
सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरेन रावल ने सॉलिसिटर जनरल ई. वाहनवती को लिखे एक पत्र के बाद केन्द्रीय कानून मंत्री अश्विनी कुमार को अपना इस्तीफा सौंप दिया है.
लेकिन जाते-जाते हरेन रावल ने पत्र में जो लिखा है वह गौर फरमाने वाला है. हरेन रावल का कहना है कि इस्तीफा देने से पहले वाहनवती को पत्र के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है जबकि असल में दोष किसी और का है. इतना ही नहीं उन्होंने कोयला आवंटन में हुए घोटाले से जुड़ी सीबीआई की जांच रिपोर्ट में शीर्ष पदों पर नियुक्त कानूनी अधिकारियों पर कई बार हस्तक्षेप करने जैसे भी आरोप लगाए हैं. हरेन रावल ने यह भी लिखा है कि 6 मार्च को कानून मंत्री के साथ हुई बैठक में ई. वाहनवती शामिल थे और इसी बैठक में स्टेटस रिपोर्ट को साझा किया गया था.
जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई बार यह निर्देश दे चुका है कि केन्द्रीय जांच एजेंसी को राजनैतिक आकाओं से आदेश लेने की कोई जरूरत नहीं है. फिर भी सीबीआई निदेशक यह कहते हैं कि वह कोई स्वायत्त संस्था नहीं बल्कि पूर्ण रूप से सरकारी संस्था है, इसीलिए थोड़ा बहुत हस्तक्षेप तो होना ही है.
सीबीआई अधिकारियों की नियुक्ति, उन्हें मिलने वाले लाभ और अन्य सभी कामकाज सरकारी नियंत्रण में होते हैं, जिसकी वजह से ऐसी उम्मीद करना तक नामुमकिन हो जाता है कि सीबीआई अधिकारी अपने रहनुमाओं के खिलाफ चलाई जा रही जांच को निष्पक्षता के साथ संभालेंगे. हालांकि सीबीआई को स्वतंत्र संस्था का दर्जा प्राप्त है लेकिन सरकारी हस्तक्षेप से वह कभी भी मुक्त नहीं हो पाई. अब जब कोलगेट मामला विवादस्पद होता जा रहा है और सीबीआई पर भी सुप्रीम कोर्ट का भरोसा नहीं रहा तो राष्ट्रीय सतर्कता आयोग को सीबीआई की जांच पर नजर रखने को कहा है.
बहरहाल यह मामला दिनोंदिन तूल पकड़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप बैसाखी के सहारे खड़ी मनमोहन सरकार का डर और बढ़ता जा रहा है. सरकार पहले ही जनता और गठबंधन में मौजूद अपने साथियों के बीच अपना विश्वास खो चुकी है और अब जब कोलगेट घोटाले के परतें खुलने लगी हैं तो उसके लिए तो हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. इस पूरे प्रकरण में हरेन रावल का नंबर भले ही पहला है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि आगे भी बहुत से अधिकारियों को अपने पद गंवाने पड़ सकते हैं, बस देखना यह है कि अगला कौन होगा.
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