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शतरंज के खेल से अब मनमोहन को आउट होना है

Manmohan Singhराजनीति में केवल ‘अनिश्चितता’ ही ‘निश्चित’ या यू कहें कि तय होती है. अनिश्चितता के अलावे यहां और कुछ भी संभावित नहीं होता. इसी अनिश्चितता के गर्भ में कई बार सत्ता की पूरी बाजी पलट सकती है तो कभी राजनीति के महारथी भी इस भंवर में फंसकर अपना नामो-निशान मिटाने के लिए मजबूर होते हैं. शायद इसीलिए राजनीति की तुलना शतरंज के खेल से की जाती है. किसी चाल में प्यादे के जोर पर दूसरे के बादशाह को चेक किया जाता है लेकिन अगली ही चाल में अगर जरूरत पड़ी तो बादशाह को बचाने के लिए प्यादे को पिटने दिया जाता है. यह मात्र एक चाल की बात है और बादशाह को बचाने की बात. पहली चाल में प्यादे को आगे करने या बादशाह को चेक करने से प्यादा कभी बहुत महत्वपूर्ण नहीं बन जाता, बादशाह नहीं बन सकता. वह बस बादशाह की सेवा में होता है और इसीलिए जरूरत पड़ने पर सबसे पहले उसे मरने के लिए आगे कर दिया जाता है. आजकल कांग्रेसी खेमे में भी कुछ ऐसा ही शतरंज का खेल चल रहा है.


कांग्रेस और सहयोगी दलों के बड़े नेता इसके चुनावी भविष्य की समीक्षा करते हुए इसके नेतृत्व के कमजोरी की बात उठाते हैं. नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार जहां 2014 में कांग्रेस के हार की बात करते हैं, वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले मणिशंकर अय्यर तो सीधे 81 वर्षीय मनमोहन सिंह के कमजोर नेतृत्व के खामियाजे के तौर पर 2014 में विपक्ष में बैठने की बात कर रहे हैं. इस विवादित बयान पर खासा हंगामा भी हो चुका है. कांग्रेस इसे मणिशंकर अय्यर का व्यक्तिगत बयान बताती है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पिछले 10 सालों से जो कांग्रेस के कार्यकर्ता बड़ी वफादारी के साथ सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के इस चुनाव को प्रशंसित कर रहे थे वही अब चुनाव से ठीक पहले पार्टी और पार्टी अध्यक्ष की परवाह न करते हुए नेतृत्व पर अंगुली कैसे उठाने लगे?

इस चेतावनी का अर्थ क्या है


जब मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना तो कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर भी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई. सोनिया की समझदारी तब इसलिए थी क्योंकि विपक्ष द्वारा अपने विदेशी मूल का मुद्दा उठाए जाने पर उन्होंने मनमोहन सिंह की एक दागरहित छवि और 1990 के आर्थिक संकट के तारणहार अर्थशास्त्री को देश की सर्वोच्च पदवी दान कर देश की अपने लिए सहानुभूति भी अर्जित कर ली थी. इसके साथ ही अपनी समझ पर देश को भरोसा भी दिला दिया था कि वे देश को एक ईमानदार और सुरक्षित भविष्य देंगी. पहली पारी सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद दूसरी पारी इसी पगड़ी के भरोसे जब उन्होंने जीती तब भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व और सोनिया के इस चुनाव पर कोई शक-शंका नेपथ्य में भी नजर नहीं आई. दूसरी पारी में घोटालों की बरसात के साथ जब मनमोहन सिंह की चुप्पी पर बहस होने लगी तब भी कांग्रेस और सोनिया ने कड़े शब्दों में विरोधियों को चुप कराते हुए कहा कि वे मनमोहन के साथ हैं. जब मनमोहन भी घोटालों के घेरे में आ गए तब भी पूरी कांग्रेस और सोनिया मनमोहन के साथ थे. मनमोहन पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. लेकिन अब इसके अपने ही कार्यकर्ता इस पर सवाल उठाने लगे हैं. मनमोहन सिंह के कमजोर नेतृत्व की बात करने लगे हैं. महंगाई और घोटालों से निपटने में मनमोहन की असफलता की बात करने लगे हैं. क्यों आज 10 सालों के बाद उन्हें इस कमजोर नेतृत्व का एहसास हुआ है?


जाहिर सी बात है इसके पीछे भी राजनीति के शतरंज का खेल है. मनमोहन सिंह जो इस शतरंज के खेल में कांग्रेस का एक प्यादा थे अब इसके किसी काम के नहीं. सोनिया और कांग्रेस को अपनी साफ छवि के बल पर 10 साल सत्ता से बाहर रहने से बचाते हुए अब वे दागदार बन चुके हैं और बहुत संभावना है कि अगर इस प्यादे को सामने नहीं लाया गया तो अगली चाल में लोकसभा चुनाव में तो जाएंगे ही, उसके अगले लोकसभा चुनाव में भी बादशाहत छिनने के आसार बन जाएंगे क्योंकि इतने घोटाले और इतनी महंगाई को जनता 5 सालों में भूल जाएगी शायद संभव न हो. हां, अगर इस प्यादे (मनमोहन सिंह) को अभी की इस चाल में सामने किया जाए और सारे दोष इस पर मढ़ते हुए अपने ‘नेतृत्व चुनाव की गलती’ को स्वीकार कर लिया तो इस तरह यह प्यादा मारा तो जाएगा, उनकी बादशाहत पर चेक भी आएगा लेकिन अगली चाल के लिए कुछ देर उन्हें सोचने का मौका तो मिलेगा ही. शायद इसीलिए अब मणिशंकर अय्यर जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी को भी मनमोहन सिंह के कमजोर नेतृत्व की बात नजर आने लगी है और इससे सबक लेते हुए चिंतन मनन के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद वे विपक्ष में बैठने की बात कह रहे हैं.

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