एक तरफ तेलंगाना के मुद्दे पर आंध्र अंधेरे में डूबा है दूसरी तरफ कांग्रेस और राहुल गांधी का चुनावी अभियान अब नजर आने लगा है. राहुल अपनी सभा में खुद अपनी ही तारीफों के पुल बांधने में लगे हैं. हर सभा में अध्यादेश पर अपने नजरिए को चुनावी भाषण बनाकर पेश कर रहे हैं. ऐसा लग रहा है जैसे अध्यादेश वापस लेकर कांग्रेस ने कोई बहुत बड़ा त्याग किया हो. तेलंगाना का मुद्दा जोर पकड़ा है और केंद्र से लेकर सीमांध्र तक एक अनिश्चित्कालीन अंधेरे में डूबा हुआ नजर आ रहा है. बावजूद इसके अब तक कांग्रेस सीमांध्र के राजनीतिज्ञों को मना नहीं पाई है, न ही इसका कोई और हल ही ढूंढ़ सकी है. इतनी नाजुक परिस्थितियों में कांग्रेस जिसे अपनी विकास नीति बता रही है उसका दूसरा पहलू पूरी तरह राजनीतिक ही है.
आंध्र प्रदेश का बंटवारा और तेलंगाना के निर्माण की सहमति कांग्रेस ने आनन-फानन में दे दी. इसके पीछे आधार रखा गया आंध्र प्रदेश की सीमांध्र प्रमुख राजनीति और तेलंगाना का उपेक्षित विकास. नए तेलंगाना प्रदेश के निर्माण की मांग पिछले कई वर्षों से इसी मुद्दे पर केंद्रित है कि आंध्र प्रदेश की राजनीति में केवल सीमांध्र प्रदेश को प्राथमिकता दी जाती है और उसी प्रदेश के विधायक-मंत्रियों की भागीदारी भी सरकार बनाने में होती है. जाहिर सी बात है अपने ही राज्य में उपेक्षित कोई प्रदेश कब तक इस उपेक्षा को सह सकता है. वे अगर अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं. यह आंध्र प्रदेश की आंतरिक राजनीति की खामियां हैं और वहां के स्थानीय लोगों को इसके खिलाफ मांग करने का पूरा अधिकार है. लेकिन नेपथ्य में इसी मुद्दे ने राजनीति की सियासत का एक बड़ा मौका दिया है.
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तेलंगाना का मुद्दा वर्तमान मुद्दा है यह और बात है लेकिन हर राज्य के बंटवारे में जितनी सच्चाई प्रदेश की उपेक्षा के कारण नए राज्य की मांग रही है उतनी ही बड़ी सच्चाई इसके राजनीतिक लाभ रहे हैं. जब-जब राज्यों का बंटवारा हुआ है हिंसा की आग में वहां की जनता जली है. व्यवस्था सुधार और प्रदेश विकास के नाम पर हुए बंटवारे के बाद उसकी व्यवस्था और विकास की हकीकत आज किसी से छुपी नहीं है. चाहे वह उत्तराखंड हो या छत्तीसगढ़ या झारखंड किसी भी राज्य में बंटवारे से पहले और बाद की स्थिति का जायजा लें तो हालात पहले से बेहतर तो क्या शायद और बदतर नजर आएं. छतीसगढ़ आज नक्सलियों का अड्डा बन गया है, उत्तराखंड और झारखंड में प्रशासनिक सुधार और विकास के नाम पर कुछ भी नहीं है. झारखंड में 13 सालों में अब तक 12 सरकारें बदल चुकी हैं. वहां के विकास का सहज ही अंदाजा आप लगा सकते हैं.
मुद्दे की बात राज्यों का बंटवारा नहीं है बल्कि बंटवारे के नाम पर की जाने वाली राजनीति है. यह सच है कि क्षेत्रीय राजनीति के फेर में राज्य के उपेक्षित प्रदेश अलग राज्य को अपने विकास का रास्ता मान लेते हैं. लेकिन प्रदेश के आम लोगों से उनके राजनीतिज्ञों की मंशा बिल्कुल अलग होती है. अलग राज्य के निर्माण के साथ केंद्र में जो भी सरकार हो विकास के नाम पर राज्य बनाकर वहां अपना वोट बैंक तैयार करती है. स्थानीय राजनीति में भी वहां के राजनीतिज्ञों को अलग फंड, अलग व्यवस्था में महत्वपूर्ण जगह मिलती है और उसके साथ ही कमाने का नया जरिया. इस सब में विकास का मुद्दा सिर्फ आमजन का मुद्दा बनकर रह जाता है. राजनीतिक गलियारे में सत्ता की होड़ शुरू हो जाती है और विकास का मुद्दा बहुत पीछे छूट जाता है. यही कारण है कि 13 वर्षों बाद भी आज तक झारखंड एक स्थिर सरकार की बाट जोह रहा है और छत्तीसगढ़ एक हिंसक माहौल से आजादी का सपना.
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तेलंगाना के मसले पर जाएं तो अलग राज्य के निर्माण के साथ वहां की आम जनता को लाभ और प्रदेश में विकास का मसला भी कुछ इसी धुरी पर घूमता नजर आ सकता है. विकास कितना होगा यह और बात है लेकिन वहां के राजनीतिज्ञ सत्ता के सुख के साथ बहुत कुछ पाएंगे. केंद्र इसे विकास के लिए किया गया फैसला मानता है लेकिन कुछ हद तक यह हास्यास्पद लगता है. बंटवारे का मुद्दा नया नहीं है, बंटवारे के हश्र भी देखे जा चुके हैं. ऐसे में एक और बंटवारे के साथ केंद्र किस विकास की बात कर रहा है यह समझ से बाहर है. अगर केंद्र विकास चाहता है तो कुछ ऐसे नियम-कानून ला सकता है जिससे राज्यों को इस प्रदेशात्मक राजनीति से छुटकारा मिले और संपूर्ण राज्य को समान लाभ, समान विकास के मौके मिलें. ऐसे किसी हल की बजाय बंटवारा करवाना बस राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश ही कही जा सकती है विकास की पहल नहीं.
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