पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद व्यक्ति के एकांगी विकास की बात करते हैं, जबकि व्यक्ति की समग्र जरूरतों का मूल्यांकन किए बिना कोई भी विचार भारत के विकास के अनुकूल नहीं होगा। उन्होंने भारतीयता के अनुकूल पूर्ण भारतीय चिन्तन के रूप में ‘एकात्म मानववाद’ का दर्शन प्रस्तुत किया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के अनेक पक्ष, कई आयाम और अनेक कार्य हैं। कम उम्र में ही दुनिया को अलविदा कहने वाले पंडितजी की जिंदगी से जुड़े अनेक किस्से हैं, जो काफी दिलचस्प होने के साथ-साथ प्रेरणा भी देते हैं। 11 फरवरी 1968 को मात्र 51 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले पंडितजी की ईमानदारी, सादगी और दर्शन आज भी लोगों को सीख देते हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनकी जिंदगी से जुड़ा एक ऐसा किस्सा बताते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए काफी है।
जनसंघ को प्रमुख विपक्षी दल बनाया
वर्ष 1953 में जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्मय मृत्यु के पश्चात संगठन का समस्त दायित्व दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर आ गया। उन्होंने संगठन विस्तार पर कार्य शुरू किया। जब पंडित दीनदयाल जनसंघ के संगठन महामंत्री बने थे, तब जनसंघ की लोकसभा में महज 2 सीटें होती थीं और कम्युनिस्ट एवं स्वतंत्र पार्टी जैसे दल कांग्रेस के सामने दूसरे-तीसरे पायदान पर होते थे। मगर बिना शोर किए पंडित दीनदयाल ने संगठन कार्य को जमीनी स्तर पर इस तरह से किया कि वर्ष 1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ कांग्रेस के समक्ष प्रमुख विपक्षी दल के रूप में दूसरे पायदान तक पहुंच गया था। यह देश के लिए वह आश्चर्य अनुभूति थी, जिसे दीनदयाल उपाध्याय ने कर दिखाया था।
अपने पक्ष के जातीय समीकरण को स्वयं ही बना लिया अपना विरोधी
उनकी जिंदगी से जुड़ी वो दिलचस्प घटना 1963 में हुए लोकसभा उपचुनाव की है। कहा जाता है कि वे कार्यकर्ताओं के आग्रह एवं तत्कालीन प्रांत प्रचारक भाऊ राव देवरस के कहने पर उत्तर प्रदेश के जौनपुर से चुनाव लड़े। यह वह चुनाव था, जिसमें कांग्रेस ने जातिवाद और भ्रष्टाचार जैसे हथकंडों का इस्तेमाल शुरू कर दिया था। कांग्रेस ने राजपूतवाद का माहौल तैयार किया, तो कुछ जनसंघ कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी का नाम लेकर ‘ब्राह्मण’ कार्ड चलने की योजना तैयार की। जब यह बात पंडित जी को पता चली, तो वे बुरी तरह बिगड़ गए और फटकार लगाई। दीनदयाल उपाध्याय ने जौनपुर में अपने पक्ष के जातीय समीकरण को स्वयं ही अपना विरोधी बना लिया। क्योंकि वे सभाओं में जाति के आधार पर मतदान की निंदा करते हुए उन लोगों से चले जाने की अपील करते थे, जो जाति के आधार पर उनका समर्थन करने आते थे। 60 के दशक के सामंती और यथास्थितिवादी समाज के लिए यह व्यवहार अपच का कारण बना।
एक आदर्श हार के रूप में याद की जाती है वो हार
राजनीति उनके लिए न कॅरियर, न ख्याति का साधन और न ही ताकत हासिल करने का उपकरण थी। वे जातिवाद मुक्त राजनीति के प्रवक्ता के रूप में चुनाव में थे। वे गरीब, किसान, मजदूर और हाशिए के लोगों के उत्थान की बात कर रहे थे और सामंती संस्कृति पर प्रहार भी कर रहे थे। जौनपुर की सीट जनसंघ के ही सांसद की मृत्यु के कारण खाली हुई थी। उन्होंने अपने आदर्शवादी यथार्थ को व्यावहारिक यथार्थ के सामने झुकने नहीं दिया। वे हार गए और संदेश दिया कि ‘दीनदयाल हार गया, जनसंघ जीत गया’। वे जीतते तो जौनपुर का चुनाव उल्लेखनीय नहीं होता। वे जिन कारणों और जिस उद्देश्य से हारे उससे यह चुनाव भारतीय राजनीति के इतिहास में रेखांकित हो गया। जौनपुर का चुनाव उस बीज की तरह भारतीय उपचेतना में विद्यमान है, जो राजनीति को इस दलदल से निकालने का संकल्प था। वे चुनाव नहीं जीत सके, लेकिन अपनी राजनीतिक शुचिता को कभी हारने नहीं दिया। जौनपुर के लोग उस हार को आज भी एक आदर्श हार की जीत के रूप में याद करते हैं…Next
Read More:
बॉलीवुड की वो बोल्ड हीरोइन, जिसके पर्दे पर आते ही बढ़ जाता था रोमांस का लेवल
मालदीव को लेकर भारत और चीन आमने-सामने, छिड़ी वर्चस्व की जंग!
Read Comments