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श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर क्या होनी चाहिए भारतीय रणनीति

क्रिकेट को भारत में एक धर्म का नाम दिया जाता है, अब जाहिर है जब भारत की राजनीति धर्म पर हमेशा से हावी रही तो फिर क्रिकेट कैसे बच सकता है. क्रिकेट के कमर्शियल रूप आइपीएल के साथ विवाद तो जुड़ते ही रहे हैं. पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ हुए विवाद के बाद अब बारी है श्रीलंका के खिलाड़ियों की. उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में अल्पसंख्यक तमिलों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने जो आवाज बुलंद की थी उसकी गूंज संसद तक सुनाई दी थी. आनाकानी करने और डीएमके द्वारा खुद को यूपीए गठबंधन से अलग कर लेने के बाद सरकार ने अपने घुटने टेकते हुए संसद में श्रीलंका के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन से जुड़ा प्रस्ताव पारित कर दिया था और अब खबर है कि श्रीलंका को मित्र राष्ट्र की सूची से भी हटाए जाने की मांग को हवा दी जाने लगी है.


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भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ हमेशा मधुर संबंध बनाए रखने की कोशिश करता रहा है. सार्क देशों के साथ भी भारत के संबंध अच्छे रहे हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात मनवाई जा सके. लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ बिगड़ते हालातों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को कमजोर किया और अब श्रीलंकाई तमिलों के  मुद्दे पर हो रही राजनीति के कारण भारत अपने लिए ही मुसीबतें खड़ी कर रहा है.


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श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे को गंभीरता से तो लिया जाना चाहिए लेकिन विदेश नीति के तहत किसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना किसी भी लिहाज से सही नहीं कहा सकता. हमारी छोटी सी गलती के कारण वैश्विक स्तर पर हमारी विश्वसनीयता समाप्त हो सकती है लेकिन इस मसले पर पूरी तरह उलझ चुकी सरकार शायद इस बात को महत्व नहीं दे पा रही है.



श्रीलंकाई तमिल श्रीलंका के ही नागरिक हैं. भारत का उनसे संबंध बस इतना है कि वे भारतीय मूल के हैं. पारंपरिक विदेश नीति के आधार पर देखा जाए तो यह श्रीलंका का अंदरूनी मसला है, जिसमें हस्तक्षेप करना विदेश नीति का उल्लंघन है. हालांकि हमने भारतीय मूल के विदेशियों के संरक्षण और सहयोग की जिम्मेदारी भी ले रखी है, जिसके अनुसार हमारी जिम्मेदारी बन जाती है कि हम उनके रक्षार्थ उपयुक्त कदम उठाएं. लेकिन ऐसे नकारात्मक कदम उठाने की बजाय हमारी रणनीति यह होनी चाहिए थी कि कूटनीतिक स्तर पर हम अपने प्रयासों को जारी रखते हुए श्रीलंका के साथ संबंध बनाए रखें. जिसके कि श्रीलंका-भारत के द्विपक्षीय और पारस्परिक संबंधों पर कोई गलत प्रभाव ना पड़े. सीधे-सीधे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रीलंकाई कदमों का विरोध करना एक विश्वस्त सहयोगी देश को खो देने जैसा है.


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हमारे एक गलत कदम पर घात लगाए बैठे हैं हमारे दो पड़ोसी देश, चीन और पाकिस्तान ताकि हमारी ऐसी गलती को माध्यम बनाकर श्रीलंका का प्रयोग भारत के खिलाफ किया जा सके. भारत पहले ही अपनी तीन सीमाओं पर शत्रुओं से घिरा हुआ है और अब जब श्रीलंका के प्रति भी विरोधी स्वर उठने लगे हैं तो जाहिर है समुद्र के रास्ते से भी भारत को घेरने की चीन की रणनीति सफल होती नजर आ रही है.



आंतरिक राजनैतिक बाध्यताओं को महत्व देकर हम श्रीलंका के साथ अपने संबंध खराब करने की ओर कदम बढ़ा चुके हैं. अभी श्रीलंकाई खिलाड़ियों के तमिलनाडु में खेलने पर पाबंदी लगाई जाने की पहल की गई है. आगे जाहिर है व्यापार और पर्यटन पर भी इसका असर पड़ेगा.


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एक बेहद चिंताजनक तथ्य यह भी है कि इतना सब होने के बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने श्रीलंका के खिलाफ जो मांग उठाई है वह भारत के आंतरिक और बाहरी हालातों को पूरी तरह बिगाड़कर रख देने वाले हैं. जयललिता की मांग है कि जनमत संग्रह कर श्रीलंकाई तमिलों के लिए अलग से किसी राज्य का निर्माण किया जाए.



ध्यान दीजिए यह वही मांग है जो पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को लेकर उठाई जा रही है. मुस्लिमों का तथाकथित हितैषी बनते हुए पाकिस्तान यह मांग पिछले काफी समय से उठा रहा है कि कश्मीर को भारत से अलग कर दिया जाए. हम यह कहकर पाकिस्तान की मांग को खारिज करते आ रहे हैं कि कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है, उसे किसी भी हाल में अलग नहीं किया जा सकता. भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने की पाकिस्तान की आदत को अब तक हम उसकी धूर्तता ही कहते आए हैं. ऐसे में अगर हम भी पाकिस्तान की गलत नीतियों का अनुसरण करने लगेंगे तो हममें और उसमें फर्क ही क्या रह जाएगा.


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