कहते हैं सुख एक मंजिल है और दुख एक सीढ़ियां. जब हम दुखों के बीच से गुजरते हैं तो हमारी चाह सुख तक पहुंचने की होती है. दुख से सुख तक पहुंचने के सफर को ही संघर्ष के नाम से जाना जाता है. लेकिन जब संघर्ष करते हुए आप अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं, तो आपका सफर कई लोगों के लिए मिसाल बन जाता है. भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन की कहानी भी पूरे देश के लिए एक मिसाल है.
झोपड़ी में रहते थे, फीस भरने तक के नहीं थे पैसे
केआर नारायण अपने 7 भाई-बहनों में चौथी संतान थे. उनकी आर्थिक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके पिता आयुर्वेद चिकित्सा करते थे और उनकी माता नारियल तोड़ने का काम करती थीं. झोपड़ी में रहते हुए उनके पास मूलभूत जरूरतों को पूरा करने तक के साधन नहीं थे. बचपन से केआर को पढ़ने का बहुत शौक था, लेकिन स्कूल की फीस के लिए पैसे नहीं होते थे, जिस वजह से उन्हें घंटो क्लास में खड़ा रहना पड़ता था.स्कूल जाने के लिए उन्हें रोज धान के खेतों के बीच से जाना पड़ता था और इसके अलावा स्कूल पहुंचने के लिए 15 किलोमीटर पैदल भी चलना पड़ता था.
महात्मा गांधी का लिया था इंटरव्यू
उन्हें त्रावणकोर के शाही परिवारों से छात्रवृत्ति भी मिलती थी. जैसे-तैसे कला में ग्रेजुएट और अंग्रेजी साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएट की परीक्षा पास करके दिल्ली आ गए. वहां उन्होंने कुछ समय तक जर्नलिस्ट के तौर पर ‘द हिन्दू’ और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया में काम किया. इसी दौरान उन्होंने एक बार महात्मा गांधी का इंटरव्यू भी लिया. नारायण इसके बाद इंग्लैंड चले गए, वहां पर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से राजनीति विज्ञान की पढ़ाई की.
राष्ट्रपति बनने तक का सफर
25 जुलाई 1997 को भारत के 10वें राष्ट्र्पति चुने गए केआर नारायण ने परंपरा तोड़ते हुए वोट डाला था। 1998 में हुए आम चुनाव में केआर नारायण ने राष्ट्रहपति रहते हुए वोट डाला था और ऐसा करने वाले वह भारत के पहले राष्ट्रहपति थे। हालांकि, इसके बाद यह परंपरा चली आई और अब सभी राष्ट्ररपति वोटिंग में हिस्साि लेते हैं। आपको बता दें कि राष्ट्र पति बनने से पहले नारायण एंबेसडर भी रह चुके हैं, वहीं इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंबने दो बार लोकसभा चुनाव भी लड़ा था…Next
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