दिल्ली का चुनावी बुख़ार उतर चुका है. लोगों ने अपना नेता चुन लिया है. दिल्ली की अधिकतम सीटों पर झाड़ू चल गई है. झाड़ू भी ऐसी चली है कि दिल्ली में कमल की केवल तीन-चार पंखुड़ियाँ ही बच पाई है. झाड़ू के दफ्तर में हलवाईयों की चाँदी हो रही है. झाड़ू की गाँठ खुल जाने से जहाँ कमल कुम्हलाई है वहीं हाथ गर्त में चली गई है. बाकी पार्टियाँ चैनलों के सीट तालिका में भी स्थान नहीं बना पाई है. कुछ चैनलों की सीट तालिका पर तो इनका विशिष्ट वर्गीकरण करके इन्हें भेड़-बकरियों की तरह ‘अन्य’ में ठूँस दिया गया है.
कई पार्टियों की दुकानदारी जहाँ बंद हो गई है वहीं झाड़ू से देश की सफाई करने की हवा को भी रफ्तार मिल सकती है. ‘दीदी’ और ‘तीर’ को बंगाल और बिहार में इससे बड़ी राहत तो मिलेगी लेकिन पड़ोसी राज्य ‘साइकिल’ को अपने टायर की हवा बचाने के लिए अब मशक्कत तो करनी ही पड़ेगी.
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लेकिन लोकसभा और दिल्ली विधानसभा के चुनाव से जो एक महत्तवपूर्ण बात उभर कर सामने आई वो यह है कि छुटभैया पार्टियों की छुट्टी हो गई है. इसके साथ ही देश की संसद और दिल्ली विधानसभा में विपक्षी दल के नेता की सीट पर बैठने वाला कोई नहीं मिल रहा है. यह लोकतंत्र के लिए अच्छी संकेत तो बिल्कुल भी नहीं मानी जा सकती है.
उधर सफाई के बाद खुश दिखे झाड़ू के नेता और मफलरमैन के नाम से विख्यात केजरीवाल अपने पहले संबोधन में दबंग के चुलबुल पांडे वाली भूमिका में दिख रहे हैं. पांडे जी के अंदाज में वो अपनी श्रीमती को अपने साथ मंच पर ले आए और बड़ी साफगोई से यह कहने में भी गुरेज नहीं किया कि सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद भी वो उन्हें खींच कर यह कहते हुए ले आए हैं कि, ‘डरो मत! सरकार कोई एक्शन नहीं लेगी!’
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उधर झाड़ू थामने वालों ने कमलवालों पर ताना कसना शुरू कर दिया हैं, ‘चार बच गए लेकिन पार्टी अभी बाकी है.’ Next….
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