आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के बहादुरी भरे कारनामों से भरा पड़ा है। ऐसे ही एक वीर सेनानी थे लाला लाजपत राय, जिन्होंने भारत मां के लिए अपनी एक-एक सांस न्योछावर कर दी। लाला लाजपतराय आजादी के मतवाले ही नहीं, बल्कि एक महान समाज सुधारक और महान समाजसेवी भी थे। 28 जनवरी, 1865 को लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के मोगा जिले में हुआ था। आइये उनके जन्मदिन के मौके पर उनसे जुड़ी कुछ रोचक बातें आपको बताते हैं, जिनसे शायद आप अनजान हों।
रुचि
लाला लाजपत राय के पिता लाला राधाकृष्ण अग्रवाल पेशे से अध्यापक और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक थे। प्रारंभ से ही लालाजी लेखन और भाषण में बहुत रुचि लेते थे। उन्होंने हिसार और लाहौर में वकालत शुरू की। लाला लाजपतराय को शेर-ए-पंजाब का सम्मानित संबोधन देकर लोग उन्हें गरम दल का नेता मानते थे। लालाजी स्वावलंबन से स्वराज्य लाना चाहते थे। 1897 और 1899 में जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा, तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। जब अकाल पीड़ित लोग अपने घरों को छोड़कर लाहौर पहुंचे, तो उनमें से बहुत से लोगों को लालाजी ने अपने घर में ठहराया। उन्होंने बच्चों के कल्याण के लिए भी कई काम किए। जब कांगड़ा में भूकंप ने जबरदस्त तबाही मचाई, तो उस समय भी लालाजी राहत और बचाव कार्यों में सबसे आगे रहे।
अंग्रेजों के फैसले का जमकर विरोध
जब 1905 में बंगाल का विभाजन किया गया था, तो लाला लाजपत राय ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी व विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेजों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। देशभर में उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को चलाने और आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। अंग्रेजों ने अपने को सुरक्षित रखने के लिए जब लाला को भारत नहीं आने दिया, तो वे अमेरिका चले गए। वहां उन्होंने ‘यंग इंडिया’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन किया और न्यूयॉर्क में इंडियन इनफार्मेशन ब्यूरो की स्थापना की।
असहयोग आंदोलन में कूद पड़े
1920 में कलकत्ता में कांग्रेस के एक विशेष सत्र में लाला लाजपतराय ने भाग लिया, जिसमें वे गांधीजी द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। लालाजी के नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल में आग की तरह फैल गया। जल्द ही वे पंजाब का शेर या पंजाब केसरी जैसे नामों से पुकारे जाने लगे। लालाजी को इस बात का पता चल गया था कि अब भारतीयों में आजादी के लिए आक्रोश पैदा हो चुका है।
30 अक्टूबर, 1928 को इंग्लैंड के प्रसिद्ध वकील सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय आयोग लाहौर आया। उसके सभी सदस्य अंग्रेज थे, जिस कारण लालाजी जैसे क्रांतिकारी इस आयोग से नाराज थे। उनका मानना था कि सात सदस्यीय आयोग का ‘साइमन कमीशन’ भारत देश पर नजर रखेगा और इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। पूरे भारत में साइमन कमीशन का विरोध हो रहा था। लाहौर में भी ऐसा ही करने का निर्णय हुआ। देश भर से ‘साइमन कमीशन गो बैक, इंकलाब जिंदाबाद’ जैसी आवाजें सुनाई दे रही थीं।
‘अंग्रेजों वापस जाओ’ का नारा दिया
साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लालाजी ने ‘अंग्रेजों वापस जाओ’ का नारा दिया और कमीशन का डटकर विरोध जताया। इसके जवाब में अंग्रेजों ने उन पर लाठीचार्ज किया पर लाला जी पर आजादी का जुनून सवार था। लालाजी ने अपने अंतिम भाषण में कहा कि ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की कील बनेगी’। अपने हर एक सांस को भारत मां पर न्योछावर करने वाले लालाजी ने अपनी अंतिम सांस 17 नवंबर, 1928 को ली।
लालाजी की मौत से सारा देश उत्तेजित हो उठा
कहते हैं कि एक क्रांतिकारी की आवाज हजारों क्रांतिकारियों को जन्म देती है। लालाजी की मौत से सारा देश उत्तेजित हो उठा। चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने की ठान ली थी। इन क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली मार दी। सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी…Next
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