यूपीए और एनडीए के लिए आने वाला वर्ष बहुत महत्वपूर्ण होने वाला है. जहां एक दल दूसरे की हार और अपनी जीत का जश्न मनाएगा वहीं दूसरा दल अपनी कमियों को परखकर “हमारे हारने का क्या कारण रहा” जैसे विषयों पर चिंतन करेगा. अब कौन सा दल कौन सी कमान संभालेगा यह तो हम अभी नहीं कह सकते लेकिन वर्तमान हालातों को देखते हुए यह जरूर कह सकते हैं कि रणभूमि का तापमान बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है.
सबसे ज्यादा गहमा-गहमी इस बात से है कि यूपीए और एनडीए की ओर से कौन सा उम्मीदवार प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा होगा. भाजपा के गलियारों में अभी तक नमो-नमो की ही गूंज सुनाई दे रही है, यह गूंज इतनी तेज है कि इसके आगे किसी और की आवाज या तो आती ही नहीं, लेकिन अगर कहीं आने लगे तो उसे दबा दिया जाता है. यही हाल कुछ नीतीश कुमार और लालकृष्ण आडवाणी का हुआ जब उन्होंने मोदी के विरोध में आवाज उठानी शुरू की तो एक तो उन्हें गठबंधन से बाहर का रास्ता देखने को मजबूर होना पड़ा तो दूसरे की महत्ता को ही समाप्त कर दिया गया. अब बोलने वाले तो यह भी बोल सकते हैं कि नीतीश खुद अपनी मर्जी से गठबंधन से अलग हुए हैं तो यह बात भी सोचनी चाहिए कि आखिर कोई तो कारण होगा जो 17 साल पुराना साथी खुद को अलग करने के लिए क्यों विवश हुआ? खैर अगर हो भी गया तो उसे मान-मनौवल कर वापस बुलाया भी जा सकता था. लेकिन पार्टी की ओर से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया. इतना ही नहीं जब पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी मोदी को मिलने वाले पद पर फिर से एक बार विचार करने को कहा तो उन्हें भी पार्टी के भीतर रखकर बहिष्कृत करने जैसा कदम उठा लिया गया.
खैर यह तो बात हुई भाजपा की अब अगर यूपीए की बात करें तो कभी सोनिया-मनमोहन के मॉडल को परफेक्ट बताकर यह इशारा किया जाता है कि शायद अगली बार भी पार्टी मनमोहन सिंह के ही नाम पर मुहर लगाएगी तो कभी पार्टी के वरिष्ठ नेता अपने युवराज को ही गद्दी सौंपने की बात करते हैं. अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बातों-बातों में इशारा दे दिया है कि अगर राहुल गांधी उनकी गद्दी संभालते हैं तो उन्हें बड़ी खुशी होगी, अर्थात वह खुशी-खुशी अपनी कुर्सी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को देने के लिए तैयार हैं.
भले ही भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी को प्रचारित किया जा रहा हो और कांग्रेस अब कमान युवराज को सौंपने की तैयारी में हो लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह राजनीति का धर्मयुद्ध है यहां कब और कैसे ट्विस्ट आ जाए कहा नहीं जा सकता. क्या पता अब तक जिस तरह नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी के नामों पर चर्चाएं हो रही हैं वह सिर्फ चर्चाएं हों, पर्दे के पीछे का सच कुछ और ही हो.
दोनों ही दल सेफ साइड होकर चल रहे हैं और किसी भी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहते. बस इंतजार इस बात का है कि कौन सा दल प्रधानमंत्री पद के लिए अपने प्रत्याशी का नाम साफ कर पहले धमाका करता है.
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