लोकसभा चुनावी संग्राम का महाकुंभ समाप्त हुआ और देखिए एक लंबे इंतजार के बाद परिणाम भी सामने आ रहे हैं. वैसे जाहिर तौर पर जो परिणाम आने हैं वह कहीं ना कहीं अपेक्षित भी थे इसलिए ये कहना कि लोकसभा चुनाव 2014 के नतीजे हैरान कर देने वाले हैं, सही नहीं होगा. कांग्रेस के लंबे शासनकाल पर विराम लगाते हुए बीजेपी एक बहुत बड़ी और उल्लेखनीय जीत हासिल करने की ओर है जो वाकई काबिल-ए-तारीफ है.
कांग्रेस के शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई और सामाजिक अपराधों ने देश की जनता को इतना त्रस्त कर दिया कि वह एक विकल्प की तलाश में जुट गई और ये विकल्प उन्हें मिला भाजपा के रूप में. लेकिन इस सिक्के का एक और पहलू यह भी है कि इस चुनाव से देश में मौजूद धर्मनिर्पेक्षता को गहरा आघात पहुंचा है और यह साबित हो गया है कि देश की जनता विशेषकर युवा, कट्टरवाद को पूरा समर्थन देते हैं. शायद जनता विकल्प की नहीं कट्टर नेता की तलाश कर रही थी और उनकी ये तलाश मोदी ने पूरी कर दी.
भाजपा की जीत को नरेंद्र मोदी की जीत माना जा रहा था और अब जब भाजपा ने चुनावी मैदान में अपने दम पर परचम लहरा दिया है तो जाहिर तौर पर यह जीत मोदी की ही है, वे मोदी जो अभी तक अपने सिर से गुजरात में हुए हिन्दू-मुसलमान दंगों का दाग धो नहीं पाए हैं. जिन्हें आज भी सांप्रदायिक छवि वाले नेता के तौर पर ही जाना जाता है और ऐसे बड़े आरोपों के बावजूद उन्हें मिला विशाल समर्थन यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि जिस धर्मनिर्पेक्षता की हम बात करते हैं, हमारे राजनीतिज्ञ कसमें खाते हैं, वह सिर्फ और सिर्फ किताबी बातें हैं क्योंकि जब बात वोट देकर अपनी सरकार चुनने की आती है तो कहीं ना कहीं हमारा सपोर्ट भी कट्टरवाद की ही तरफ बढ़ता है.
इन 60 सालों में पहली बार स्वयं जनता ने यह साबित कर दिया है कि धर्मनिर्पेक्षता जैसी कोई भी बात उनके लिए मायने नहीं रखती. मोदी कट्टर हैं या नहीं, लेकिन उनकी सामाजिक छवि एक ऐसे लीडर की है जो संप्रदाय विशेष को महत्व देकर आगे बढ़ता है और ऐसी छवि वाले नेता के हाथ में देश की सत्ता सौंप देने का अर्थ है धर्मनिर्पेक्षता की अवधारणा को पूरी तरह नकार देना.
मोदी को समर्थन देकर इस बार देश की जनता ने एक विशेष प्रकार के फासिज्म की तरफ रुख किया है और नरेंद्र मोदी को उनकी उसी छवि के रूप में स्वीकार किया है जिस रूप में उन्हें प्रचारित किया जाता रहा है. देश की जनता ने स्वयं मोदी को वो चेहरा दिया है जो सांप्रदायिक नेता की पहचान है लेकिन फिर भी उनके नेतृत्व में भाजपा को जीत की राह पर आगे बढ़ा कर यह साबित कर दिया गया है कि धर्मनिर्पेक्षता की कोई भी अवधारणा भारत के लिए सटीक नहीं बैठती.
वैसे जो भी है सबसे बड़ी और गौर करने वाली बात तो यह है कि भाजपा ने बहुमत से जीत हासिल कर गठबंधन सरकार बनने की परंपरा को अपने दम पर तोड़ डाला है जोकि वाकई उसकी एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि पिछले कई सालों ने भारत को गठबंधन सरकार से ही काम चलाना पड़ रहा है. ऐसा गठबंधन जिसके टूटकर बिखरने की संभावनाएं हमेशा ही बनी रहती हैं.
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