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प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की नई परंपरा शुरू हुई है

manmohan singh as pm in hindiभारतीय राजनीति में अर्थशास्त्री से अलग डॉ. मनमोहन सिंह एक समय सोनिया गांधी के लिए तुरुप का पत्ता बनकर सामने आए थे. एक दशक पहले जब कांग्रेस के पाले में लंबे समय बाद जीत की जयकार गूंजी तो सोनिया का विदेशी मूल का होना उनकी सबसे बड़ी परेशानी बन गई. तब मनमोहन सिंह ही थे जिसे सोनिया ही कांग्रेस का एक निर्विरोध प्रधानमंत्री चेहरा बनाकर सामने लाईं. हालांकि मनमोहन सिंह का वजूद भारतीय राजनीति में इससे पहले भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में रहा लेकिन सीधा-सादा यह व्यक्तित्व बहुत कम लोगों की याद में रह सका था.


विशुद्ध रूप से अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने उस समय के घटनाक्रमों में मीडिया ने इसे ऐतिहासिक घटना के रूप में दिखाया लेकिन मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री का प्रधानमंत्री बनने के कारण नहीं बल्कि सोनिया गांधी के त्याग के कारण. 1991 में देश की पहली सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था संकट के वक्त अपनी काबीलियत के देश की गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए वित्त मंत्री बनाया जाने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के लिए एक बहुत अच्छा विकल्प था ऐसी कोई चर्चा नहीं थी, बल्कि चर्चा में था कि गांधी परिवार की पुत्रवधू, देश की बहू ने देशहित में सत्ता लोभ का त्याग कर दिया. इस त्याग के पीछे मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्री व्यक्तित्व कहीं दब कर रह गया पर राजनीति की परंपरा है कि यहां हर कोई किसी न किसी से दबा हुआ होता है. तब किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि इस दबाव का कोई नकारात्मक प्रभाव भी देश की राजनीति और विकास पर पड़ सकता है. सभी बहू के त्याग और सूझबूझपूर्ण चुनाव से अभीभूत थे. लेकिन इसके दूरगामी परिणाम जब सामने आने लगे तो राजनीतिक महकमे में हड़कंप मच गया.

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इसी क्रम में एक नजर प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह के कॅरियर ग्राफ पर डालते हैं:

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट करने के बाद मनमोहन सिंह दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अंतरराष्ट्रीय व्यापार विषय के प्रोफेसर रहे. वित्त मंत्रालय में सलाहकार भी रहे. बहुत कम लोग जानते हैं कि मनमोहन सिंह आरबीआई के गवर्नर भी रह चुके हैं. 1982-1985 तक मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पद पर रहे. इसके अलावे एक अर्थशास्त्री के तौर पर मनमोहन सिंह की कई उपलब्धियां रहीं लेकिन इनमें सबसे ज्यादा याद किया जाता है 1991 में इनका वित्त मंत्री बनना. पी.वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वर्ष 1991 अत्यंत मुश्किलों भरा साबित हुआ जब भारत के पास मात्र एक माह के आयात के लिए विदेशी मुद्रा भंडार बच गया. इस मुश्किल भरी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मनमोहन सिंह को तब वित्त मंत्री बनाया गया था और धीरे-धीरे उनकी सूझबूझ भरी आर्थिक नीतियों से मुश्किलें कम भी हुईं. मनमोहन सिंह ही थे जिन्होंने पहली बार भारत में विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की पहल की. इसलिए जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनकर आए तो लोगों को भारतीय अर्थव्यवस्था में किसी बहुत अच्छे बदलाव की उम्मीद थी. हालांकि हुआ इसके उलट ही.

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यह मनमोहन सिंह सरकार की बड़ी सफलता ही कही जाएगी कि जवाहरलाल नेहरू के बाद पहली बार किसी पार्टी ने 5 वर्षों का कार्यकाल पूरा कर लगातार दूसरी बार सरकार बनाई. लेकिन सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह दूसरी पारी इस दागरहित माने जाने वाले व्यक्तित्व के लिए दागदार बनाने वाला रहा. अभी हाल ही में रुपया गिरना जब तक मीडिया और देश के लिए बड़ी खबर नहीं बना था मनमोहन सिंह सरकार ‘घोटालेबाज सरकार’ के रूप में चर्चा का विषय बन चुकी थी. कोयला घोटाला, 2जी घोटाला, रेलवे रिश्वत कांड आदि एक के बाद कई रिश्वतखोरी और घोटालों के मामले सामने आए लेकिन मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व शक के घेरे से दूर रहा. पर 2जी घोटाले में प्रधानमंत्री की सहमति होने जैसे आरोपों के बाद मनमोहन सिंह का दागरहित चरित्र भी शक के घेरे में आ गया. कहीं दबी जुबान में ऐसी बातें भी सामने आईं कि मनमोहन सिंह मात्र नाम मात्र के प्रधानमंत्री हैं और इसका लाभ लेकर इनकी सरकार में घोटालों की बाढ़ आ गई है. हाल के समय में अपने दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री से अलग सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में सामने आए हैं. राजनीतिक समीक्षक इसे कांग्रेस पार्टी और सोनिया की रणनीति का हिस्सा मानते हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप में एक प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की नई परंपरा मनमोहन सिंह से शुरू हुई है.

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