साहिल तक पहुंचने से पहले ही केन्द्रीय सत्ताधारी दल यूपीए की नैया मंझधार में फंसती नजर आने लगी है. भ्रष्टाचार, महंगाई, बड़े-बड़े घोटालों से जूझ रही सरकार का अपना स्थान बचा पाना समय के साथ-साथ और मुश्किल होता जा रहा है. जाहिर सी बात है इस उठापटक के लिए जिम्मेदार उस दल का प्रतिनिधि यानि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही हैं, जिनके कंधों पर पर देश की नकारात्मक और सकारात्मक परिस्थितियों की जिम्मेदारियों का बोझ लाद दिया गया है.
अब अगर मनमोहन सिंह अपनी कैबिनेट और मंत्रियों के व्यवहार और उनके द्वारा आए दिन होने वाले भ्रष्टाचारों पर नकेल नहीं कस पा रहे हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि जिस जिम्मेदारी को निभाने की अपेक्षा उनसे की जा रही है वह उसमें असफल साबित हो रहे हैं, जिसकी वजह से अभी तक यह कयास लगाए जा रहे थे कि शायद कांग्रेस की ओर से मनमोहन सिंह का पद छीन कर अगले सबसे बड़े उम्मीदवार और कांग्रेस के युवराज को प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा.
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तो पहले ही मनमोहन-सोनिया मॉडल को फेल करार दे चुके थे लेकिन अब इन सभी कयासों पर विराम लगाते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मनमोहन सिंह का कोई विकल्प यूपीए के पास नहीं है इसीलिए वर्ष 2014 तक मनमोहन सिंह ही देश के प्रधानमंत्री रहेंगे. उनका कहना है कि जब कभी भी सोनिया-मनमोहन के बीच तनाव जैसी बातें मीडिया में उठती हैं तो यह साफ कर दिया जाता है कि यह कोरी अफवाहें हैं और मनमोहन सिंह ही आगामी लोकसभा चुनावों तक देश के प्रधानमंत्री रहेंगे.
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के दो मंत्रियों, कानून मंत्री अश्विनी कुमार और रेल मंत्री पवन बंसल पर विभिन्न आरोप लगने और जिसके चलते इस्तीफे की गाज गिरने के बाद भी प्रधानमंत्री की ओर से इस मसले पर चुप्पी साधी गई तो उनकी इस चुप्पी के कारण कांग्रेस आलाकमान और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच गर्मा गर्मी का माहौल बन गया था क्योंकि मिसेज गांधी यह चाहती थीं कि मनमोहन सिंह अपनी चुप्पी तोड़ कर इस बाबत कुछ बोलें, लेकिन मनमोहन सिंह ने उनकी राय को नजरअंदाज कर दिया.
इसी बीच वर्ष 2019 तक राज्यसभा सदस्य रहने के लिए असम निर्वाचन क्षेत्र से नामांकन पत्र भर दिया गया है ताकि वह अपनी सदस्यता सुनिश्चित कर सकें और अगर आगामी लोकभा चुनावों में भी यूपीए गठबंधन को विजय मिलती है तो वह तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बनने के लिए योग्य करार दिए जाएं.
भले ही 2004 में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बीच तनाव गर्मा गया था लेकिन जब 2009 के चुनावों में कांग्रेस ने पिछली बार से 50 सीटें ज्यादा हासिल की तब इस बढ़त का थोड़ा बहुत क्रेडिट मनमोहन सिंह को भी गया था, क्योंकि उन्हीं की वजह से यूपीए की छवि एकदम साफ और परिष्कृत रही और ईनाम के तौर पर एक बार फिर उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया. उन्हें यह पद देकर कांग्रेस के वो नेता जो खुद को इस पद का प्रबल दावेदार मान रहे थे उनके बीच रोष तो उत्पन्न हुआ था लेकिन आलाकमान का फैसले के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत करना तो दूर इस बारे में सोचना तक नेताओं के लिए बुरा सपना साबित हो सकता है.
मिशन 2014 जैसे-जैसे तजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे कांग्रेस पर लगने वाले आरोपों का सिलसिला भी तेज होता जा रहा है. बड़े स्तर पर घोटाले हों या महंगाई की मार, हर स्तर पर भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या महिलाओं की सुरक्षा, उसे नजरअंदाज किया जाने जैसा मसले पर कांग्रेस सरकार हर ओर से सिर्फ आरोपों के घेरे में घिरती जा रही है. ऐसे हालातों में कांग्रेस या फिर संप्रग के ही सत्ता में आने की संभावना बहुत कम है. लेकिन अगर फिर भी कोई चमत्कार हो जाता है तो अगला प्रधानमंत्री का चुनाव करने में सिर्फ आलाकमान का ही निर्णय सर्वोपरि होगा और उनके चुनाव को चुनौती देने की हिमाकत कांग्रेस क्या पूरे गठबंधन में कोई नहीं कर सकता. फिलहाल तो मनमोहन सिंह से उनकी कुर्सी कोई नहीं छीन सकता लेकिन अगर अगली बार भी उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया तो इसमें कोई हैरानी जैसी बात नहीं होगी.
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