राजनीतिक समीकरण बदलते हुए देर नहीं लगती. कल जिसे अपना कहा जाता था वह कब पराया बनकर मुंह मोड़ ले कुछ नहीं कहा जा सकता. राजनीति में अपने-पराये की परिभाषा को पूरी तरह बदलकर रख दिया जाता है. बस अपना काम निकलना चाहिए बाकी चाहे कुछ भी हो. वैसे तो आम जिन्दगी की गाड़ी भी स्वार्थ और निजी लाभ को प्रमुखता देते हुए ही चलती है लेकिन जब बात राजनीति और वो भी भारत की राजनीति की होती है तो हालात थोड़े और ज्यादा संजीदा इसीलिए हो जाते हैं क्योंकि सवाल पूरे देश का होता है.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अब भारत में केंद्रीय स्तर पर किसी भी एक दल की सरकार बनना बहुत कठिन हो गया है और गठबंधन की सरकार का भविष्य कभी भी निश्चित नहीं हो सकता. कौन कब दगा दे जाए और अपना हाथ गठबंधन से वापस खींच ले कहा नहीं जा सकता. ऐसे ही हालातों का सामना आजकल कांग्रेस आधिपत्य वाली यूपीए सरकार को करना पड़ रहा है. पहले ममता बनर्जी ने संप्रग से खुद को अलग कर लिया फिर बारी आई डीएमके की. जब उनकी बात नहीं मानी गई तो डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने भी यूपीए गठबंधन को अलविदा कह दिया.
ऐसे हालातों में कांग्रेस आधिपत्य वाली सरकार का गिरना निश्चित हो गया था लेकिन उन्हें सहारा मिला अपने बाहरी दोस्तों, सपा और बसपा का, जिनके समर्थन से अभी तक यूपीए ने खुद को बचाया हुआ है. लेकिन मौजूदा हालातों को देखते हुए लंबे समय तक यूपीए का सरकार में रहना मुश्किल लग रहा है.
कांग्रेस के विश्वस्त साथी मुलायम सिंह यादव पहले ही आडवाणी के प्रति अपने सकारात्मक विचार व्यक्त कर चुके हैं. ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश की व्यवस्था पर भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सवाल उठाए तब अपने बेटे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश को सीख देते हुए सार्वजनिक सभा में मुलायम सिंह ने यह साफ कहा था कि आडवाणी अगर ऐसा कह रहे हैं तो ऐसा ही होगा क्योंकि आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते. कहीं ना कहीं मुलायम सिंह यादव ने यह इशारा कर दिया था कि वह कांग्रेस से दूरी बनाने की कोशिश कर रहे हैं और कांग्रेस के विरुद्ध बयान देते हुए मुलायम सिंह यादव का यह भी कहना था कि वर्ष 2014 में होने वाले आम चुनाव इसी साल नवंबर में संपन्न हो सकते हैं, उनके इस बयान के बाद मनमोहन सिंह ने भी यह कहा था कि मुलायम कभी भी पार्टी छोड़कर जा सकते हैं. लेकिन जब मुलायम सिंह को लगा कि उनका तीर गलत निशाने पर लग गया है और उन्हें मान मनौवल कर पार्टी से जुड़े रहने के स्थान पर उनके जाने के लिए रास्ते खोले जाने लगे हैं तो शायद वो डर गए और अपने बयान से यह कहकर पलट गए कि सरकार से समर्थन वापसी की उनकी कोई योजना नहीं है. अब इसे मुलायम की कमजोर राजनीति कहें यह फिर ढुलमुल रवैया लेकिन उन्हें देखकर यही लगता है कि वह खुद ही निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर उन्हें क्या चाहिए.
लेकिन अगर मुलायम ने सरकार से खुद को अलग करने का निर्णय लिया था और सरकार गिराकर मध्यावधि चुनाव करवाने जैसे बयान दिए थे तो इसके पीछे कोई ना कोई रणनीति तो रही होगी. कहते हैं कोई यूं ही किसी को दिल नहीं दे देता. अब अगर मुलायम सिंह यादव आडवाणी के करीब जा ही रहे हैं तो बहुत हद तक संभव है कि इसके पीछे भी कोई रणनीति ही होगी और जाहिर सी बात है यह रणनीति मुलायम सिंह यादव के अपने फायदे के लिए ही होगी. लेकिन ये फायदे क्या हैं, यह हम आपको बताते हैं. भले ही पुख्ता तौर पर ना सही लेकिन वर्तमान समीकरणों को देखते हुए तो संभावनाएं कुछ यही लग रही हैं:
1. प्रधानमंत्री बनने की मंशा: इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुलायम सिंह यादव के भीतर भी प्रधानमंत्री पद को ग्रहण करने का लालच आ गया है. मुलायम आडवाणी के साथ नजदीकी बढ़ाते हुए नजर आ रहे हैं. जाहिर है वह एनडीए को समर्थन देने के लिए तैयार हैं. हो सकता है वह एक डील के तहत कुछ समय के लिए खुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हों.
2. सही मौके की तलाश: सरकार गिराने के लिए सही मौके की तलाश में हैं मुलायम सिंह यादव. मुलायम सिंह पिछले विधानसभा चुनावों में मिली जीत को इस बार भी कैश करना चाह रहे हैं. अगले चुनावों में जितनी देर की जाएगी सपा के जीत की संभावनाएं कम होती जाएंगी. उत्तर-प्रदेश उनका गढ है और वह जरूर यह चाहते होंगे कि 80 में से 60 या फिर 75 सीटें जीतकर आने वाली सरकार पर दबाव बनाया जाए, ताकि जो भी सरकार में आए वह उन पर सीबीआई का चाबुक ना चला पाए. उनका सबसे बड़ा डर गिरफ्तारी का है. वह यह नहीं चाहते होंगे कि जांच के दायरे में आकर उनका पूरा जीवन जेल में ही गुजरे.
3. तीसरे मोर्चे की सरकार: हालांकि तीसरे मोर्चे की सरकार का अस्तित्व में आना मुश्किल ही है लेकिन अगर फिर भी ऐसा होता है तो आज की तारीख में वाम मोर्चा ही सबसे प्रभावशाली है. मुलायम सिंह यादव अगर तीसरे मोर्चे में आकर सरकार बनाना चाहते हैं तो जाहिर है वह यह नहीं चाहते कि तीसरे मोर्चे की सरकार में वह द्वितीयक स्थान पर रहें. इसीलिए वह जल्द से जल्द मध्यावधि चुनावों की प्रतीक्षा में हैं. क्योंकि वह जानते हैं कि अगले साल 2014 के मध्यांत में जब तक चुनाव होंगे तब तक तो उनकी स्थिति पूरी तरह खराब हो चुकी होगी.
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