आज की राजनीति पूरी तरह से अपने मायनों से हट कर नए स्तम्भों पर टिक गई है. यह स्तम्भ ऐसे हैं जो पुराने राजनीतिक प्रणाली को बदल चुके हैं और इसके साथ-साथ उन सारे सरोकारों के अर्थ भी बदल चले हैं जो राजनीति को जनहित की इकाई बनाते थे. शायद इसका परिणाम पहले से अच्छा हो पर जब तक यह अपने-आप को पूरी तरह से क्रियाशील नहीं करते और अपने रूप को प्रकट नहीं करते तब तक इसके बारे में पूर्ण रूप से अनुमान लगाना व्यर्थ ही होगा. उस रूप का दर्शन किस प्रकार आज की राजनीति दे पाएगी इस बात का फैसला या तो चुनाव से होगा या फिर उसी भ्रम में रहना पड़ेगा कि आने वाले दिन सुखद होंगे. इसी चर्चा के दौरान ये भी सवाल उठता है कि नरेन्द्र मोदी के ऊपर लग रहे आरोप क्या उनके राजनीतिक जीवन पर असर डाल पाएंगे?
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नरेन्द्र मोदी क्या दबंग रह पाएंगे?: चुनावी बाज़ार में शक्ति-प्रदर्शन आवश्यक होता है. इसी पर पूरी तरह से चुनाव के परिणाम निर्भर करते हैं. कुछ और तथ्य जरूर हैं जिन पर भी चुनाव के परिणाम निर्भर करते हैं पर शायद उनको बोलना सही नहीं होगा. कुछ बातें अपनों तक सीमित रहें उसी में सब की भलाई है. नरेन्द्र मोदी जितना अपने विकास के लिए प्रसिद्ध नहीं हैं उससे कहीं ज्यादा उन बातों को लेकर वो सुर्खियों में छाए रहते हैं जिसे दाग माना जाता है. विवादों की मार झेलते नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार अभी तक अपने आप को दबंग साबित करते आए हैं क्या इस बार भी वो ऐसा करने में कामयाब रहेंगे? उनके खिलाफ बोलने में जहां भारत के प्रधानमंत्री भी नहीं चूकते ऐसे में कैसे वो अपनी कुर्सी को बचा पाएंगे. अपनी छवि को विकास के के नाम से बचाने वाले नरेन्द्र मोदी पर अभी भी कई तरह के विकास से जुड़े सवाल दागे जा रहे हैं.
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नई मुसीबत का निदान कैसे?: कुछ ऐसे नए-नए सवाल सामने आ रहे हैं जो नरेंद्र मोदी की मुसीबत को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं. जहां सौराष्ट्र में पानी की मार से जनता बेहाल है वहीं कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जो अपना निजी हित साधने के लिए मोदी की ओर बढ़ते नज़र आ रहे हैं. पानी की दिक्कत कुछ ऐसी है जो उन सारे प्रांत को प्रभावित करती है जिससे खुद मोदी भी प्रभावित होते आए हैं. एक तरफ जहां अल्पसंख्यक के मुद्दे पर हमेशा से फंसे हुए मोदी ने इससे उबरने की कोशिश की पर फिर भी उन पर इस मुद्दे को लेकर अभी तक चर्चा जारी है. प्रधानमंत्री का तो यहां तक कहना है कि नरेन्द्र मोदी गुजरात में विभाजनकारी राजनीति कर रहे हैं जो राज्य के विकास में अवरोध का कारण बनता जा रहा है. विकास का लाभ एक विशिष्ट वर्ग को ही मिल पा रहा है जो राज्य के विकसित होने पर सवाल उठाते हैं. मोदी ने जिस प्रकार यह बात फैलाई थी कि वो कट्टरवाद को परे रखते हैं पर इस बार भी उनकी यह बात सफल नहीं हुई. इस बार की तालिका में एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है. यह सब एक प्रखर कारण के रूप में उभर के आने वाला है गुजरात के चुनाव में और अब यह देखने वाली बात होगी कि कांग्रेस किस तरह से इन सब का फायदा उठाती है और भाजपा किस तरह से अपने आप को फिर से गुजरात के लिए सक्षम सिद्ध कर पाती है.
ये भी हैं मैदान में: आईपीएस संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट अपनी बयानबाजी में तल्ख तेवर अपना रही हैं. गुजरात को एक भय विहीन राज्य बनाना भी उनकी टिप्पणी में शामिल था. जहां उन्होंने कहा कि गुजरात में पिछ्ले दस सालों से लोकतंत्र नहीं है, गुजरात में नफरत की राजनीति की जा रही है जो किसी खास समुदाय के विरूद्ध है और जो द्वन्द पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं करती, इसी आग में गुजरात जल रहा है. अब देखने वाली बात यह होगी कि नरेंद्र मोदी किस प्रकार अपने आप को इन सब से उबार पाएंगे और अपनी सत्ता को बचा लेंगे.
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