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विकास पुरुषों की राजनीति विकास पर भारी न पड़ जाए

इस वेदी पर अभी और जानें फूंकी जानी हैं. बलि का बकरा बनने की परंपरा बहुत पुरानी है. चौंकाने वाली बात यह है कि हर कोई अपने आप को पाक-साफ बता रहा है…तो गुनहगार है कौन? यह वास्तव में साजिश है या किसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन ऊहापोह की सी इस स्थिति में ये जाएं तो जाएं किस ओर!


पटना में नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली हजारों जानों की लीलने की कवायद बनते-बनते रह गई. बेधड़क 7 सीरियल ब्लास्ट बिहार की राजधानी को हिला देने के लिए काफी थे. नरेंद्र मोदी की रैली (narendra modi rally) से ठीक एक घंटे पहले एक ब्लास्ट रैली के आयोजन स्थल गांधी मैदान से 100 मीटर की दूरी पर भी हुआ. जानकारों का कहना है कि गनीमत थी कि नरेंद्र मोदी तब घटनास्थल पर उपस्थित नहीं थे वरना उनके साथ कोई अनहोनी भी हो सकती थी. नरेंद्र मोदी की देशभक्ति का अकूत जज्बा देखिए कि इतने खतरे के बाद भी पूर्व निर्धारित हुंकार रैली में वे गए और उपस्थित भीड़ को बड़े जोशो-खरोश के साथ संबोधित भी किया.

इनकी मौत में आश्चर्यजनक समानताएं थीं


narendra modi rahul gandhiचाणक्य जैसे राजनीति के गुरु के साथ कभी भारतीय राजनीति का स्वर्णिम अध्याय लिखने वाली पाटलिपुत्र की धरती पर यह ब्लास्ट नरेंद्र मोदी के पाटलिपुत्र प्रेम में जरा सी शिकन नहीं डाल सकी..जयप्रकाश की भूमि के प्रेम से मोदी ओत-प्रोत नजर आए…और इसे खुले शब्दों में बयां भी करते हैं, “बिहार के बिना देश का विकास संभव नहीं है”. मोदी की इस शहद मिश्रित वाणी में जितनी मधुरता बिहार की बोली और वहां के लोगों के लिए दिखी, बिहार के मुख्यमंत्री और अपने (भूत) पूर्व मित्र नीतीश कुमार के लिए उतने ही तीखे तेवर थे. आखिर क्यों? यह पूछने लायक सवाल नहीं है क्योंकि इसका जवाब हर किसी को पता है. सौ टके का सवाल लेकिन यह जरूर है कि आखिर इतने मुखर आवाज में आत्मविश्वास के साथ नरेंद्र मोदी कैसे बोल पाए जबकि उन्हें भी पता है बिहार की धरती पर नीतीश की बोली तब मुखर हुई जब लालू यादव की सत्ता को उखाड़ पाना मुश्किल लग रहा था. लेकिन गुजरात के इस विकास पुरुष ने बड़े आत्मविश्वास के साथ नीतीश की खिलाफत का अंदाज दिखाया. एक मुख्यमंत्री और भाजपा के भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी पूरी तरह चुनावी रंग में रंगे थे लेकिन ब्लास्ट के भय की कांति तो छोड़ो, एक शिकन तक उनके चेहरे पर नजर नहीं आई. क्या यह अंदाज एक भावी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के भीरू व्यक्तित्व का परिचायक था? कहीं इसके पीछे कोई और कहानी तो नहीं!


Narendra Modi and Nitish Kumar

नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली (narendra modi rally) स्थल से मात्र 100 मीटर की दूरी पर हुआ ब्लास्ट और मोदी का इससे बेखबर अंदाज एक नजर में वास्तव में प्रभावकारी है. उस पर भी भाषण में बिहार के मुख्यमंत्री और अपने पूर्व मित्र नीतीश कुमार के लिए इतने तीखे तेवर के साथ भी उन्होंने एक बार भी ब्लास्ट या उनकी सुरक्षा में मुख्यमंत्री द्वारा चूक किए जाने का जिक्र नहीं किया. देखने वाले कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी आम जनता के हित में कितने कार्यशील हैं कि इतने खतरों के बावजूद उन्होंने रैली रद्द नहीं की. जब राहुल गांधी अपनी जान का वास्ता देकर, जान का रोना रोकर सहानुभूति का वोट लूटने की कोशिश कर रहे हैं, नरेंद्र मोदी अपनी रैली से ठीक पहले इतने बड़े सीरियल ब्लास्ट का जिक्र तक नहीं करते. वह भी तब जब अपने विरोधी के राज्य में (जहां उसकी मजबूत स्थिति भी है) अपने पक्ष में चुनावी रुख बनाने आए हों. नरेंद्र मोदी के पास बहुत अच्छा मौका था कि वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधते और हुंकार रैली से पहले सीरियल ब्लास्ट से नीतीश की गलत मंशा और अपनी सुरक्षा को जोड़ते हुए नीतीश कुमार के खिलाफ लोगों के मन में कड़वाहट का बीज डाल जाते. पर ऐसी सभी संभावनाओं को गलत साबित करते हुए नरेंद्र मोदी एक बार भी ब्लास्ट का जिक्र तक नहीं करते. एक नजर में यह मोदी की दरियादिली दिखती है तो दूसरी नजर तस्वीर का एक और काला पक्ष होने की तरफ भी चुपके से इशारा कर जाती है.

क्या भाजपा इस सदमे के लिए तैयार है?


आपको याद होगा नरेंद्र मोदी की इस हुंकार रैली से कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी अपने एक भाषण में ‘अपने पिता और दादी’ की तरह मारे जाने की बात कहते हैं और राजनीति अचानक गर्मा सी जाती है. चारों तरफ से राहुल द्वारा भाषण को व्यक्तिगत रूप देने की कोशिश कर गांधी परिवार के प्रति लोगों की सहानूभूतिपूर्ण भावनाओं को कुरेदने की कोशिश के लिए राहुल की बहुत निंदा हुई. आज भी हो रही है. भाजपा और स्वयं नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को शहजादा कहकर उनके इस भावुकता भरे भाषण की जी भरकर भर्त्सना की. हालांकि राहुल का यह भाषण हर बुद्धिजीवी तबके में भी निंदित हुआ लेकिन राजनीतिक गलियों में इसकी निंदा के कई मायने थे. राहुल के इस वक्तव्य के लिए उनका मजाक उड़ाकर भले ही वे आगे बढ़ जाने का दिखावा कर गए पर भारत की भोली जनता जनार्दन को यह पिघला न दे इसका डर उन्हें अंदर तक डरा रहा है. कुछ बोलकर अपना डर जताते हैं, कुछ डर भगाने का रास्ता ढूंढ़ लेते हैं. हो सकता है कि पटना में हुंकार रैली से ठीक पहले सीरियल ब्लास्ट भोली जनता को पिघलने से बचाने का कोई रास्ता हो.


राजनीति एक ऐसी चीज है जहां हर कोई खुद को दूसरों से बेहतर बताकर अपना राजनीतिक हित साधना चाहता है. इस हित में और कुछ नहीं ‘सत्ता का हित’ होता है. लेकिन हित को साधने के लिए, दूसरों से स्वयं को बेहतर साबित करने के लिए यहां के दांव-पेंच उतने ही उलझे हुए हैं जितने की मकड़े के जालों में उसकी लड़ियां. इसे कोई सुलझा नहीं सकता, हां सुलझाने की कोशिश में उलझ जरूर सकता है. इसलिए राजनीति में इन जालों को सुलझाने की बजाय इसके प्रत्युत्तर में उस जाले को छुपाते हुए एक और जाला तैयार कर दिया जाता है. इनकी खासियत होती है इनका न दिखना. न दिखने वाला जो जाला पहले आएगा लोग उसी में फंसेंगे. इसलिए हो सकता है पटना का सीरियल ब्लास्ट राहुल गांधी के ‘पापा और दादी’ की तरह मारे जा सकने की संभावना जताने वाले मकड़जाल में भारत की भोली जनता को फंसने से बचाने के लिए तैयार किया गया कोई जाला ही हो. नाम भी हो गया कि कोई बात नहीं, हमने इसे तवज्जो नहीं दी, कुछ भी हो हम जनता के सेवक हैं और अपनी जान पर खेलकर हम जनता की सेवा करते रहेंगे और अपना बाल भी बांका न हुआ. एक तीर से दो निशाने लगाए और हम बेदाग भी रह गए.


असलियत की गिरह खोलना इतना आसान नहीं. राजनीति की पेंचों में हर कोई उलझकर रह जाता है. कौन सी पेंच कहां से जुड़ी होगी कोई नहीं पहचान सकता लेकिन संभावनाओं के आकाश में जब काले बादल आते हैं और बरसे बिना चले जाते हैं तो किसी अनहोनी की संभावना से भी इनकार नहीं कर सकते. सहानुभूति की राजनीति में आम आदमी की जानों को बेमोल बनने की धुरी है यह. लोकतंत्र पर मंडराता खतरा है. सच तो इन संभावनाओं को जन्म देने वाले ही जानें लेकिन अगर यह सच हुआ तो तूफान ही नहीं चुनाव से पहले अलनीनो भी आ जाए तो कम है.


नेहरू सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाला आदर्शवादी नेता

राजनीति के तालाब में ये शोर कैसा?

मशाल को जलने के लिए एक चिंगारी की जरूरत है


narendra modi rally


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