भारत में जिस तरह से लोकपाल बिल लाने के लिए संघर्ष किया गया था उसके मद्देनजर जो लोकपाल बिल पारित हुआ है वह किस हद तक सही है, इस बात पर चर्चा होनी चाहिए. अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण जो उस आंदोलन के मुख्य स्तम्भ थें, के विषय में यह देखा गया है कि मानसिकताओं में अंतर की वजह से इनकी एकजुटता में ही सेंध पड़ गई. जहां अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नई पार्टी बना ली है वहीं अब यह आसार भी लगाए जा रहे हैं कि किरण बेदी भी अन्ना दल से अलग होने जा रही हैं. इस पूरे मामले में कांग्रेस पार्टी की भूमिका भी महत्वपूर्ण समझी जा रही है.
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सरकारी लोकपाल: सरकार द्वारा पारित लोकपाल बिल सार्थक होगा या नहीं यह देखने वाली बात होगी पर फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सरकार द्वारा लागू किया गया लोकपाल बिल उस रूप में सक्षम होगा जिसे ध्यान रख कर इस पूरे बिल को लागू करने की बात की गई थी? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पत्र लिखकर आंदोलनकारियों को यह भरोसा दिलाया था कि उनकी मांगों के अनुसार ही लोकपाल बिल को पारित किया जाएगा पर जब बिल पारित किया गया तो उसमें कुछ भी वैसा देखने को नहीं मिला जिसकी अपेक्षा थी, जिसके परिणामस्वरूप अब सरकार के ऊपर भरोसा करना मुश्किल सा लग रहा है. लोकपाल बिल के विषय में जो मांगे की गई थीं उनके अनुसार सिटिजन चार्टर, लोवर डेमोक्रेसी और राज्यों में लोकायुक्त भी होगा, जबकि सरकार द्वारा पारित लोकपाल बिल में यह तीनों मुद्दे नहीं है, संसद और देश के प्रधानमंत्री द्वारा किया गया वायदा जिस प्रकार से तोड़ा गया है उसे देखकर यही लगता है कि सरकार बिना मन के एक अधिनियम के रूप में लोकपाल बिल को पास कर दिया है जिससे देश की स्थिति में सुधार होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहें हैं.
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जनता की मांग क्या थी: जनता के अनुसार उसे देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए एक ऐसा बिल चाहिए था जिससे भ्रष्टाचार के मामलों से सीधे तौर पर निपटा जा सके. लेकिन सरकार का यह फैसला देश की जनता के हितों के लिए नहीं बल्कि राजनैतिक हित को साधने के लिए किया गया है. भारत की जनता यह मान चुकी है कि भारत के सभी राजनैतिक दल भ्रष्ट हो चुके हैं पर इसके बावजूद भी इस भ्रष्टता को रोकने के लिए इस लोकपाल बिल में कोई नियम नहीं हैं. आप यह समझ सकतें हैं कि इस लोकपाल बिल को पारित कर किस तरह जनता के भावनाओं के खेला गया है. अन्ना हजारे की यह भी मांग थी कि राजनैतिक पार्टियों को भी इस दायरे में रखा जाए पर इस बिल में यह देखने को नहीं मिला है, राजनैतिक पार्टियों के निरिक्षण के लिए अब भी कोई जांच आयोग नहीं गठित किया गया है. इस मामले को लोकसभा के पास करवा दिया गया था पर राज्य सभा में जब इस पर विचार किया गया तो उसे लटका दिया गया, अब यह बिल पुनः राज्यसभा में जाएगा और उसके बाद इसे फिर से लोकसभा में पारित किया जाएगा, जहां उसे कोई असुविधा नहीं होगी पारित होने में. यह बात देखी गई है कि जिस लोकपाल की आशा संसद और लोकपाल चयन समिति द्वारा की जा रही थी उसके अनुसार यह बिल खुद को साबित नहीं कर पाया है.
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