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इस चेतावनी का अर्थ क्या है?

लोकतंत्र में राजनीतिक शक्तियों की चाबी हमेशा जनता के पास ही होती है. कोई भी राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ, चाहे वह इसमें कितनी ही पैठ क्यों न रखता हो कभी भी अपनी जीत का दावा नहीं कर सकता. दावा करने का अर्थ है कि वह भुलावे में है..और भुलावा अक्सर विनाश का पर्याय होता है.


चार राज्यों में विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं और इसके साथ ही 10 सालों से केंद्र और 15 सालों से दिल्ली में सरकार चला रही कांग्रेस के पांव यहां तो पूरी तरह उखड़ ही गए हैं इसके दूरगामी परिणाम लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का बयान भी कर रहे हैं. यह एक बड़े बदलाव का नजारा है हालांकि ये अप्रत्याशित नतीजे नहीं कहे जा सकते. इसके कई कारण हैं और सभी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं.


लोग भ्रष्टाचार और महंगाई को इसका मूल मानकर भले ही इस नतीजे को कांग्रेस की किरकिरी का कारण मान रहे हों लेकिन इसके साथ कई ऐसी बातें हैं जो कांग्रेस की हार-बयार के केंद्र में बह रही हैं. दिल्ली में अपनी सबसे बड़ी हार के साथ कांग्रेस इससे सबक लेने और इसकी समीक्षा की बात कह चुकी है. लेकिन इसके साथ ही वह यह जोड़ देती है कि महंगाई जनता के बीच उसके विरुद्ध सबसे बड़ा मुद्दा है.


अवश्य ही महंगाई और भ्रष्टाचार राष्ट्रीय मुद्दे बन चुके हैं लेकिन केवल इसी बिना पर कांग्रेस की हार की समीक्षा नहीं की जा सकती. इसकी इस हार के पीछे इसके कार्यकर्ताओं, वरिष्ठ नेताओं की बेधड़क, निरंकुश से प्रतीत होने वाले बयानों के कुप्रभावों की उपेक्षा नहीं की जा सकती. दिल्ली की ही बात करें तो तमाम घोटालों के साथ ही सही लेकिन शीला दीक्षित ने दिल्ली को दुरुस्त दिखाने की कोशिश जरूर की है. हाइटेक दिल्ली बनाने की बात वे बड़े गर्व के साथ कहती हैं लेकिन किसी ज्वलंत मुद्दे पर उनके बयान ऐसे आते हैं जैसे जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया बल्कि वे ही दिल्ली की सर्वेसर्वा हों. चाहे वह बलात्कार का मुद्दा हो या बिजली-पानी का. हर मुद्दे पर उनका बयान जनता के लिए जले पर नमक के समान होता है. राज्य सरकार से जिस सुरक्षा और सेवा की उम्मीद जनता करती है वह भावना इन बयानों में दूर-दूर तक नजर नहीं आती. साफ शब्दों में वह साम्राज्ञी नजर आ रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली में रहना उनका एकाधिकार हो और आम जनता को यहां रहने का अधिकार उन्होंने खैरात में दिया हो. यह एकमात्र दिल्ली और शीला दीक्षित की बात नहीं है. दिल्ली में शीला दीक्षित को जनता ने सबक सिखा ही दिया. लेकिन कांग्रेस की अचानक से दूसरे कार्यकाल में निरंकुश शासक सी प्रतीत होने वाली छवि का परिणाम उसे बाद में और भी बुरा भोगना पड़ सकता है.


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अभी तो केवल विधानसभा चुनावों के परिणाम आए हैं. कांग्रेस के तो इसी में पसीने छूट गए जबकि दिल्ली की कुर्सी की दौड़ तो अभी बाकी है. शीला दीक्षित से लेकर कपिल सिब्बल, पूर्व कांग्रेसी व वर्तमान में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और पी चिदंबरम की बात हो या सोनिया गांधी की राजनीतिक बयानबाजियां या चुनावी फेरहिस्त में हर हाल में (चाहे अध्यादेश ही क्यों न लाना पड़े) विधेयक पास करवाने के अंदाज. हर जगह कांग्रेस निरंकुश ही दिखती है. ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाता भले ही इन मुद्दों से सरोकार न रखते हों, शहरी क्षेत्रों के जागरुक मतदाता लोकतंत्र में राजशाही के इस रूप को समझते हैं और इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते.


चुनावी मत कभी जोर पर हासिल नहीं किए जा सकते. न कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ऐसा कर सकती हैं न भाजपा के खेवनहार बने नरेंद्र मोदी ऐसा कर सकते हैं. आज की जनता जागरुक है. वह अपने भले-बुरे के साथ ही राजनीतिक नीयति को भी समझती है. एक पल को भले ही वह भ्रष्टाचार को किनारे कर दे लेकिन लोकतंत्र में निरंकुशता को शह देने की कीमत वह समझती है. यह सिर्फ कांग्रेस नहीं वरन् भाजपा के लिए भी सबक लेने का सबब होना चाहिए. नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के जादू पर जीत के दावे कर रही भाजपा को भी अपनी रणनीतियों पर दुबारा विचार करने की जरूरत है. भाजपा को नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी का यह जादू दिल्ली में बुरी तरह फेल हुआ है. दिल्ली में भाजपा आज अगर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है तो उसमें नरेंद्र मोदी का जादू नहीं, बल्कि शीला दीक्षित की गलतियां थीं और हर्षवर्धन की साफ और सेवक की छवि का प्रभाव. मध्य प्रदेश में भी जहां भाजपा ने भारी जीत दर्ज की है, शिवराज सिंह के काम का कमाल है जिसे जनता ने पूरा सम्मान दिया. अगर नरेंद्र मोदी का जादू होता ही तो भाजपा दिल्ली में भी भारी जीत दर्ज करती और छत्तीसगढ़ में जहां बड़ी मुश्किल से यह खड़ी हो सकी.


दिल्ली में कांग्रेस की कमजोरी का फायदा होने के बावजूद भी आम आदमी पार्टी जैसी नवजात पार्टी ने उसको सबक दे दिया और छत्तीसगढ़ में तो यह वह भी नहीं कर सकी. कांग्रेस की कमजोरी के बावजूद वह बड़ी मुश्किल से सत्ता में खड़े रहने के काबिल रह सकी. भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी के जादुई प्रभाव की दृष्टि से चारों राज्यों के विधानसभा नतीजों की समीक्षा करें तो साफ पता चलता है हर जगह भाजपा की जीत के पीछे मोदी नहीं बल्कि अन्य कारण हैं. यह ‘नरेंद्र मोदी का जादू’ एक छलावा, प्रपंच, छद्म प्रचार दिखता है और अगर वाकई में मोदी का प्रभाव जादुई है तो यह नतीजा इस प्रभाव के असफल होने की बात कहता है और यह पहली बार नहीं है. इससे पूर्व कर्नाटक चुनावों में भी इसकी प्रभावहीनता दिख चुकी है जहां ज्वलंत भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई कांग्रेस ने फिर भी भाजपा को बुरी तरह पराजित कर दिया.

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दिल्ली में ‘आप’ का सम्मान, चारो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार, कर्नाटक चुनावों में भाजपा की हार ये सभी इशारे हैं भारतीय राजनीति के लिए कि अब विकासशील भारत की जनता विकास की परिभाषा समझने लगी है. उसे बदलाव चाहिए और बदलाव के सुधार का संकल्प चाहिए न कि कोरी कूटनीति नीतियां. यह इशारा है लोकतंत्र में जनता द्वारा अपनी भागीदारी को समझने का. यह इशारा है राजनीतिज्ञों को इसकी वास्तविक शक्ति (आम जनता) द्वारा सुधर जाने की चेतावनी का. यह इशारा है कि अब लोकतंत्र की आड़ में निरंकुशता, राजशाही प्रवृत्ति को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. यह इशारा है कि अब जनता अपनी शक्ति का दुरुपयोग किसी को नहीं करने देगी. इसलिए भाजपा हो, कांग्रेस हो या क्षेत्रीय पार्टियां या राजनीति की नई पौध ‘आप’ हर किसी को इस चेतावनी का अर्थ समझते हुए संभलने की जरूरत है ताकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में विकास की राजनीति के साथ भारत भी विकास कर सके.

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