जब बात भारत की एकता और अखंडता की आती है तो भारतीय रजनीति के इतिहास में लौह पुरुष की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. संविधान के प्रस्तावना में जिस ‘राष्ट्र की अखंडता’ का जिक्र है वह लौह पुरुष सरदार पटेल के बिना संभव नहीं था. भारत के नक्शे को पूरा करने का पूरा श्रेय सरदार पटेल को ही जाता है. स्वशासित राज्यों को ‘एक राष्ट्र निर्माण’ के लिए हिंदुस्तान के नक्शे में विलय होने के लिए सरदार पटेल की राजनीति और कूटनीति दोनों ही सर्वमान्य है. जब तक सरदार पटेल रहे कांग्रेस लगभग दो खेमों में ही बंटा रहा. एक खेमा जो सरदार पटेल को भारत के प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता था और दूसरा खेमा जो नेहरू सम्मत था. दोनों खेमे परस्पर विरोधी रहे लेकिन दोनों ही अखंड भारत के स्वप्न को पूरा करने में सरदार पटेल की भूमिका पर निर्विवाद रूप से पटेल को श्रेय देने से कभी नहीं हिचके. आजादी के बाद बापू की पहली पसंद होने के कारण जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने जरूर लेकिन नेहरू की बजाय पटेल के प्रधानमंत्री होने पर क्या-क्या हो सकता था इसपर बहस तब से आज तक जारी है. आज इसमें एक अलग नजारा यह जरूर है कि कल भारत के विकास के लिए लौह पुरुष और नेहरू में तुलना की जाती थी, आज भारत का शीर्ष पुरुष बनने के लिए नेहरू-पटेल की तुलना की जा रही है.
कहते हैं बदनाम भी हुए तो नाम होता है. यूं तो यह जुमला सड़कछाप किस्म के लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है लेकिन आज यह राजनीति में भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. भारतीय राजनीति के दिग्गज ही इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. विवादित बयान देकर ‘लाइम लाइट’ में रहने का नया ट्रेंड बन गया है. भारत के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल के जन्मदिवस पर आयोजित किसी समारोह में कल जब भावी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी और वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मिले तो विवादों की घटिया राजनीति करने की मंशा साफ-साफ नजर आती है. नरेंद्र मोदी का कहना है कि अगर जवाहरलाल नेहरू की जगह सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते तो भारत ने ज्यादा विकास किया होता…जवाब में उसी मंच पर उपस्थित डॉ. मनमोहन सिंह भी कहते हैं कि सरदार पटेल ने स्वयं कहा था कि हर फैसला वे (सरदार पटेल) और जवाहरलाल नेहरू आपसी सहमति से लेते हैं…साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि सरदार पटेल कांग्रेस के नेता थे और उसी कांग्रेस का नेता होने में उन्हें गर्व का अनुभव हो रहा है. तात्पर्य यह कि एक तरफ नरेंद्र मोदी कांग्रेस के वंशवाद की धारा में भारतीय विकास को हमेशा पीछे रखने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस की ओर से मनमोहन सिंह सरदार पटेल की राजनीतिक सहमति के साथ देश का विकास साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं. मौका था सरदार पटेल के मेमोरियल उद्घाटन का, भारत को अखंड बनाने में उनके योगदान के लिए श्रद्धांजलि देने का. लेकिन श्रद्धांजलि के बोलों में राजनीति प्रचार की भाषा आ गई.
सरदार पटेल की शैली भारतीय अखंडता के लिए थी लेकिन वही शैली आज भारत की अखंडता के खंडन के लिए उपयोग की जा रही है. ऐसा लग रहा है देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां आज इसे अपने फायदे के लिए उपयोग करने की जुगत में हैं. ‘सरदार पटेल और नेहरू में बेहतर प्रधानमंत्री कौन?’ इसपर बहस आज नई की नहीं है. भारत गणराज्य के निर्माण के साथ ही इस बहस ने जन्म ले लिया था. इस बहस को न नेहरू, न सरदार पटेल ने कभी तूल दी लेकिन समय-समय पर यह उठता रहा. समय और परिवेश की मांग लेकिन उसमें होती थी. इस चुनावी माहौल में ‘सरदार पटेल या नेहरू’ की बहस नई है क्योंकि यहां इसका उद्द्येश्य नया है. भाजपा के उद्धारक नरेंद्र मोदी जो अपनी प्रचार शैली के लिए हमेशा जाने गए हैं, सरदार पटेल के नाम के साथ भारतीयों की भावनाओं को अपने परम विरोधी कांग्रेस के विरुद्ध धारा में लाने के लिए उपयोग करना चाहते हैं जबकि कांग्रेस ‘नेहरू-पटेल की पार्टी होने की’ छवि को किसी कीमत पर खुद से जुदा न होने देने के लिए तत्पर दिखती है. यह निरुद्देश्य बहस (क्योंकि यह बहस बिना मौका उठाया गया) बस अपने फायदे के लिए उठाया गया एक प्रचार कदम हो सकता है…लौह पुरुष की लौहता से अपनी उम्मीदवारी को मजबूत करने का चस्पा इसमें साफ दिखता है. लेकिन लौह पुरुष की तो एक ही हैं. अखंड भारत की तरह ‘अखंड और अविभाज्य’.
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