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यह ढोंग कब तक काम आयेगा?

चुनाव नजदीक आते ही हर पार्टी के लिए खुद को जनता के बीच श्रेष्ठ दिखाने की सरगर्मियां बढ़ जाती हैं. किसी भी तरह, एक जिम्मेदार पार्टी, जिम्मेदार प्रत्याशी के रूप में उन्हें प्रचार चाहिए होता है. इसके लिए वे प्रत्यक्ष रूप से कुछ रणनीतियां बनाते हैं लेकिन कुछ अप्रत्यक्ष रणनीतियां भी होती हैं जो दिखने में प्रचार का माध्यम लगती तो नहीं लेकिन वास्तव में वह एक प्रचार माध्यम ही होती है.


pre poll surveyहाल के दशकों में भारतीय लोकतंत्र ने कई बदलाव देखे हैं. हालांकि इसमें ढांचागत कोई बदलाव नहीं आया है लेकिन इस ढांचे को नियंत्रित करने की प्रणाली लोकसभा और विधानसभा चुनावों में प्रत्याशी और पार्टियों द्वारा चुनाव प्रचार के तरीकों ने भारी बदलाव देखे हैं. कभी गांव-गांव जाकर, घर-घर आमने-सामने लोगों से अपने लिए वोट मांगना, सभाओं-रैलियों के द्वारा आम जनता को अपने पक्ष में वोट करने की अपील करना, पर्चे बंटवाना, गुप्त रूप से पैसे आदि से वोट खरीदने की मेहनतकश कोशिशों में मीडिया का दबदबा बढ़ने और ईलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से क्रांति आ गई. हालांकि उपरोक्त सभी सही-गलत साधन आज भी कहीं न कहीं उपयोग किए ही जाते हैं लेकिन अब मीडिया और सोशल मीडिया इनके प्रचार का एक ऐसा साधन बन गया है जिसे वे अपनी मनचाही छवि बनाने के लिए उपयोग कर सकते हैं. आज के चुनावी माहौल में सर्वे भी मीडिया का एक ऐसा ही टूल है जो चुनावी नतीजों को अपने पक्ष करने के लिए अपनी मनचाही छवि निर्माण के लिए धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं.


90 के दशक में जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रदार्पण हुआ, पश्चिमी देशों की तर्ज पर सर्वे का चलन तभी से शुरू हो गया था. आज चुनाव पूर्व भिन्न-भिन्न प्रकार के सर्वे और इसके नतीजे चुनाव प्रचार के माध्यम बन गए हैं. पोस्टर्स, विज्ञापन, रैली-भाषणों से ज्यादा शायद यह सर्वे प्रभावशाली माना जाने लगा है. इसलिए पिछले एक दशक में चुनाव से पहले सर्वे की बाढ़ सी आई दीख पड़ती है. अधिकांशत: ये सर्वे भावी चुनाव नतीजों का अंदाजा लगाते होते हैं. विभिन्न मीडिया हाउस द्वारा प्रायोजित ये सर्वे कभी किसी और पार्टी-प्रत्याशी की जीत की संभावना बताती है, तो कभी किसी और की जीत की संभावना. नतीजतन आज इन सर्वे के आधार और इनके रिपोर्ट ही संदेह के घेरे में आ गए हैं. इस बार के चुनावों में यह और भी वृहत घेरा ले रहा है.


सर्वे रिपोर्ट आज अंदाजा कम, विवाद ज्यादा बन रही हैं. अभी हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के दावे करते आप पार्टी का सर्वे रिपोर्ट इसका एक बड़ा उदाहरण है. इसके अलावे भी कई उदाहरण हैं जो विवादित रहे हैं लेकिन आज भी ये सर्वे रिपोर्ट आ रहे हैं. हर दो दिन में एक नया सर्वे रिपोर्ट मीडिया में आती है जो सामान्यतया दिखती एक स्वतंत्र सर्वे रिपोर्ट है लेकिन कभी कांग्रेस, कभी भाजपा, कभी किसी और पार्टी के पक्ष में अपना अंदाजा जता रही होती है. इसमें एक नया स्वरूप आया है व्यक्तिगत सर्वे रिपोर्ट का. ये सर्वे रिपोर्ट किसी व्यक्ति-विशेष को लेकर अपनी राय जाहिर कर रहे होते हैं. जैसे अभी 2-3 दिन पहले प्रसिद्ध पत्रिका टाइम्स द्वारा पर्सन ऑफ द ईयर की दौड़ में नरेंद्र मोदी के आगे होने और जीते जाने की खबर चर्चा में रही. ऐसा लगा मोदी अब प्रधानमंत्री ही बन जाएंगे और इसके लिए उनकी हर पायदान पर आगे आने और पिछड़ने की खबर मीडिया लगातार दे रही थी. इसके साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भारत की सबसे  प्रभावशाली महिला बता एक और नया सर्वे रिपोर्ट आ गया जो एक बार फिर बहस का मुद्दा बन गया है.

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कांग्रेस और इसके समर्थक जहां इसे सोनिया का सम्मान बता रहे हैं वहीं भाजपा और कांग्रेस के समर्थक इसे खरीदा गया सर्वे रिपोर्ट बता रहे हैं. हालांकि स्थितोगत यह कोई नई बात नहीं है. आए दिन सर्वे रिपोर्ट का आना इसकी सत्यता पर सवाल उठा रहे हैं. स्थिति यह है कि आज अगर कोई सर्वे किसी पार्टी या विरोधी पार्टी के पक्ष में दिखती किसी प्रकार की सर्वे रिपोर्ट आती है, दूसरे ही दिन कोई अन्य रिपोर्ट इसके प्रतिद्वंदी के पक्ष में आ जाती है. इस तरह हर पार्टी सर्वे के माध्यम से अपनी छवि को मजबूत बनाना चाहती है. पर इससे खराब होती सर्वे की छवि ने किसी भी सर्वे रिपोर्ट की सत्यता और विश्वासपरकता को संदेह के घेरे में ला दिया है. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह वीभत्स स्थिति के संकेत हैं. जाहिर है भविष्य में इसके तोड़ के लिए और कोई उपाय ढूंढ़ा जाएगा जो शायद इससे भी वीभत्स स्थिति लेकर आए.

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