प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समय-समय पर अपनी चुप्पी तोड़ने में माहिर हैं. वह चुप्पी तोड़कर यह एहसास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वह देश के सर्वोच्च पद पर हैं और उन पर ऐसे ही कोई आरोप नहीं लगा सकता. अब हाल ही की बात ले लीजिए जब टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ 13 अन्य कैबिनेट मंत्रियों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाए जिसे कांग्रेस ने ये कहकर खारिज कर दिया कि ये आरोप बेबुनियाद हैं और इनका जवाब दिए जाने की कोई जरूरत नहीं है. लेकिन इस मामले ने मीडिया में लगातार सुर्खियां बटोरी. इससे सरकार और प्रधानमंत्री की किरकिरी भी हुई. तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि अगर अन्ना हज़ारे की टीम की ओर से उन पर लगाए आरोप साबित हो गए तो वे सार्वजानिक जीवन से संन्यास ले लेंगे.
इससे पहले भी प्रधानमंत्री को ‘कठपुतली’ का नाम दिया गया है और इस मामले में भी उन्होंने कई दिनों तक चुप्पी साधे रखी. अंत में इस आरोप को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि विपक्ष मेरे खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा है. प्रधानमंत्री पर आरोप लगाना कोई नई बात नहीं है. यह एक ऐसा पद है जिसे पाने के लिए हर राजनेता सपने देखता है. इस पद की अपनी गरिमा और मान-सम्मान है लेकिन यूपीए के कार्यकाल में इस पद की छवि को काफी नुकसान पहुंचा है.
यूपीए के कार्यकाल ने 2जी घोटाले जैसे कई बड़े घोटाले देश को दिए. यह सभी घोटाले प्रधानमंत्री की नाक के नीचे होते रहे और प्रधानमंत्री को कुछ पता भी नहीं चला. भारत में प्रधानमंत्री का पद ऐसा बनाया गया है जिसके पास तमाम बड़ी शक्तियां हैं और वह चाहे तो किसी भी विभाग के मंत्री को उसके पद से बर्खास्त कर सकता है. लेकिन मनमोहन सिंह ने कभी भी अपनी शक्तियों को नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि मंत्री, अधिकारी घोटाले पर घोटाले करते रहे और जब भी प्रधानमंत्री से इन घोटालों के बारे पूछा गया तो वह गठबंधन की राजनीति का रोना रोने लगते. ऐसे में यदि कोई मंत्री जनहित के खिलाफ काम करता है तो प्रधानमंत्री अपनी सरकार बचाने के लिए उस मंत्री को वह काम करते रहने देंगे.
लेकिन इस बार प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है ऐसा बयान प्रधानमंत्री की तरफ से कभी भी सुनने में नहीं आया. इस बार प्रधानमंत्री ने अपने ऊपर लगाए गए आरोप को बहुत ही गंभीरता से लिया है. शायद वह समझ गए हैं कि रह-रह कर उन लगाए जा रहे आरोप उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं.
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