एक लंबे समय तक अंग्रेजी हुकूमत की चाटुकारी करने के बाद जब आखिरकार भारत को संप्रभुत्व संपन्न राष्ट्र कहलवाने का अधिकार प्राप्त हुआ तो ऐसा समझा जा रहा था कि अब देश की तकदीर बदलेगी. राजनैतिक, प्रशासनिक और न्यायिक क्षेत्राधिकार अपने पास होने से भारतीय लोगों की अस्मिता और वैश्विक स्तर पर भारत के खो चुके सम्मान को पुन: वापस लाया जा सकेगा, इसी उम्मीद से देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त करवाने के लिए ना जाने कितने ही लोगों ने अपनी जान की बाजी लगा दी.
लेकिन किसे पता था कि बीतते समय के साथ भारत की राजनीति के रंग कुछ इस तरह बदलेंगे कि हमें स्वयं यह समझ नहीं आएगा कि इन बिगड़ते हालातों के लिए कोसें भी तो किसको. भारत की कानून व्यवस्था इस हद तक शिथिल पड़ चुकी है कि कम से कम भारतीय राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था के अनुसार तो त्वरित न्याय जैसी परिभाषा का अर्थ लगभग समाप्त ही हो गया है क्योंकि अगर हम अपने प्रधानमंत्री के हत्यारों को ही सजा दे पाने में अक्षम साबित हो गए हैं तो अन्य किसी के साथ हुए अपराधों के लिए किस तरह न्याय की उम्मीद कर सकते हैं.
12 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा सुनाई थी. तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने इन हत्यारों की दया याचिका को भी खारिज कर दिया था लेकिन अब इसे राजनैतिक विडंबना कह लें या कानूनी लापरवाही लेकिन सरेआम राजीव गांधी को मौत के घाट उतारने वाले लिट्टे से संबंधित ये तीनों दोषी आज भी फांसी पाने का इंतजार कर रहे हैं.
भारत एक सहनशील राष्ट्र है यह बात तो हम जानते हैं लेकिन सहनशीलता अगर जरूरत से ज्यादा बढ़ जाए तो वह कमजोरी और ढीलेपन का परिचायक बनकर अपनी पहचान दर्ज करवाती है और यही हो रहा है इस बार हमारे साथ. उल्लेखनीय बात है कि लिट्टे समर्थक और इन हत्यारों के शुभचिंतक दुनियाभर में इन तीन हत्यारों को जीवनदान देने के लिए मुहिम का आह्वान कर चुके हैं और वह भी मात्र इसी आधार पर कि जब 12 सालों में इन्हें फांसी नहीं दी गई तो अब फांसी का औचित्य ही समाप्त हो गया है. इतना ही नहीं कुछ मानवाधिकार संगठन भी अब यह मांग उठाने लगे हैं कि दोषियों को विलंबित फांसी की सजा को अब आजीवन कारावास में तब्दील कर देना चाहिए.
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एक आरटीआई के तहत यह जानकारियां सामने आई हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था के इस सुस्त और ढीले रवैये के कारण लिट्टे के समर्थक अब 1999 में हुई राजीव गांधी की हत्या के दोषियों की फांसी की सजा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं. उनकी मांग है कि फांसी की सजा में अत्याधिक विलंब होने या सजा का पालन ना करने के कारण फांसी की सजा को समाप्त कर उसे आजीवन कारावास में परिवर्तित कर देना चाहिए.
उल्लेखनीय बात एक और भी है. हाल ही में भारत सरकार द्वारा बिना किसी पूर्व सूचना के अजमल और अफजल को फांसी दिए जाने के बाद भारत के ही कुछ मानवाधिकार संगठन यह चेतावनी दे चुके हैं कि दोषियों को फांसी देना बंद करे भारत. लेकिन गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत की सरकार केवल वोट बैंक की राजनीति में ही भरोसा करती है. अफजल और अजमल बस मोहरे थे जो स्वार्थ में लिप्त राजनीति के काम आए. सही समय आने पर इन्हें सजा दी गई. जब लोहा गर्म हो वार उसी वक्त करना चाहिए, बस इसी को आदर्श मानकर चलने वाली राजनीति इन दोषियों को मुक्त करती है या अपने फायदे के लिए फांसी के तख्ते पर लटकाती है यह बात देखने वाली होगी.
Post Your comment: क्या फांसी में देरी होने के कारण सजा को कम करना एक जायज निर्णय कहा जाएगा?
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