“यदि मैं एक तानाशाह होता तो धर्म और राष्ट्र अलग-अलग होते. मैं धर्म के लिए जान तक दे दूंगा. लेकिन यह मेरा निजी मामला है. राज्य का इससे कोई लेना देना नहीं है. राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष कल्याण, स्वास्थ्य, संचार, विदेशी संबंधों, मुद्रा इत्यादि का ध्यान रखेगा, लेकिन मेरे या आपके धर्म का नहीं. वह सबका निजी मामला है.” ये शब्द हैं हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जिन्होंने अपने जीवन में धर्म और राजनीति को अलग-अलग जगह दी क्योंकि उन्हें पता था कि राष्ट्र का विकास धर्म के नाम पर नहीं हो सकता.
हमारे संविधान निर्माताओं ने एक अखंड और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखा था. आज हर किसी पर धर्म का रंग चढ़ा हुआ मालूम पड़ता है. हमारा संविधान कहता है कि हमने एक ऐसा देश बनाया है जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई सभी भाई-भाई हैं पर सच इनसे कहीं परे है. इतिहास साक्षी है कि राजनीति ने कभी धर्म, तो कभी जाति के नाम पर इस देश को तोड़ा है. हिन्दू राष्ट्र सेना, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारत हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, बजरंग दल जैसी सैकड़ों राजनीतिक दल हैं जो धर्म की राजनीति पर अपनी अपनी रोटी सेंकते हैं. धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाते इस माहौल में कभी धर्म के नाम पर राम मंदिर बनाने का मुद्दा उठता है तो कभी गोधरा कांड होता है. कभी रथ यात्रा निकलती है, तो कभी मस्जिद गिरता है. हद तो अब हो गई है जब भाजपा 2014 के चुनाव के लिए परोक्ष रूप से विकास को मुद्दा न बना कर 84 कोसी परिक्रमा को अपनी जिद बना बैठी. कहीं ऐसा न हो कि इस बार के आम सभा चुनावों में वह लोगों से यही वादा कर दे कि हम आपको रोटी, कपड़ा और मकान दें, न दें पर हर घर में एक मंदिर जरूर देंगे.
सुरक्षा का वादा न कर धर्म के नाम पर जनता का हितैषी बनने का यह फॉर्मूला हमेशा ही इस देश में हिट भी रहा है. भाजपा जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल जो देश की सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रहा है उसका इतिहास तो सिर्फ धार्मिक उथल-पुथल से भरा पड़ा है. ऐसा लगता है जैसे हर मंदिर और वेद रचने का काम उन्हीं को दिया गया है. राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाकर बाबरी मस्जिद तुड़वाना देश की एकता और अखंडता पर एक क्रूर प्रहार था. पर वह दर्द आज किसे याद है.
अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में शिक्षा मंत्री रहे मुरली मनोहर जोशी के लिए तब शायद देश के विकास से ज्यादा भावी पीढी को धर्म और ज्योतिष की शिक्षा देना जरूरी लगा. शायद यही वजह रही होगी कि कॉलेज के पाठ्यक्रमों में उन्होंने ‘वैदिक ज्योतिष’ एक विषय के रूप में समावेश करने का आदेश दिया. इतना ही नहीं एनसीईआरटी द्वारा निर्धारित इतिहास पाठ्यक्रमों के लिए अन्य विवादास्पद परिवर्तन भी इसमें शामिल थे. कर्नाटक में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के कुछ सदस्यों ने स्कूलों में हिंदुओं के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गीता’ के शिक्षण की सिफारिश की.
यह तो कुछ पुरानी बातें हैं. आज भी स्थिति कमोवेश कुछ वैसी ही है. कहते हैं कुछ बीमारियां लाइलाज होती हैं. शायद धर्म भी हमारी लाइलाज बीमारी बन गई है. हालांकि उपरोक्त उदाहरण कोई सदी पुरानी बातें नहीं हैं लेकिन हां, इतना जरूर है कि तेजी से बदलती इस दुनिया में कोई भी चीज बहुत लंबे वक्त तक नहीं टिक पाती. अपवाद के रूप में यह धर्म की राजनीति है जो आज भी उसी रूप में चल रही है जिस रूप में एक या दो दशक पहले चलती थी. अब हाल में उत्तर प्रदेश में आईएएस ऑफिसर दुर्गा शक्ति नागपाल के सस्पेंशन का विवादित मामला ही ले लें. अवैध सैंड माइनिंग माफिया के खिलाफ मस्जिद का निर्माण रोकना एक आईएएस ऑफिसर को भारी पड़ गया. तर्क यह कि धार्मिक भावनाओं के आहत होने और इसके कारण किसी सामुदायिक हिंसा की संभावना से बचने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया. लेकिन हकीकत सबको पता है. उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार मुस्लिम समुदाय के लिए उसकी सरपरस्ती दिखाना चाहती थी और एक ईमानदार ऑफिसर की बलि देकर मुस्लिम वोट अपने पक्ष में करना चाहती थी. हां, इस वक्त यह जरूर हुआ कि जनता ने आंखें खोलकर देखा और मुस्लिम समुदाय ही दुर्गा नागपाल के पक्ष में खड़ा हुआ.
2011 में दिल्ली में भी ऐसा ही एक विवादित मामला दिखा जब निजामुद्दीन में बने एक मस्जिद को हाई कोर्ट ने अवैध निर्माण घोषित किया. हाई कोर्ट के फैसले के बाद इसे तोड़ने पर यहां का मुस्लिम बहुल इलाका हिंसक हो उठा. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बजाय मामले को तार्किक तौर पर सुलझाने के मस्जिद तोड़ना ही गलत करार दे दिया और इसे फिर से बनाए जाने की बात कही. वह मस्जिद कोई ऐतिहासिक धरोहर नहीं थी जिसके लिए समूल मुस्लिम समुदाय की भावनाएं आहत हो जाएं. लोगों को रहने के लिए दो गज जमीन मुहैया होना मुश्किल है और यहां हर खाली जमीन पर मंदिर-मस्जिद बना दिया जाता है. अगर एक अवैध निर्माण को तुड़वाया गया तो उससे आम लोगों की भावनाएं कैसे आहत हो सकती हैं. पर यह धर्म की भावनाएं बन जाती हैं क्योंकि लगे हाथ इसपर राजनीति का तवा चढ़ा दिया जाता है. गर्म भट्ठी को बुझाने के बाद सुलगाने में मेहनत बड़ी लगती है, इससे अच्छा है जब भट्ठी गर्म हो रोटी सेंक लो.
अगर ऐसे नेता हमारे देश के कर्ता-धर्ता हैं तो वह दिन दूर नहीं जब हम विश्व के मानचित्र पर सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश होने का गौरव खो देंगे. आज की हकीकत यह है कि हम आज भी गुलाम हैं, अपनी संकीर्ण सोच में बंधे हैं. वरना ये राजनीतिक दल धर्म का पाठ हमें पढ़ा नहीं रहे होते. अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाई थी. उसी मंत्र का सहारा लेकर ये नेता भी आज शासन करना चाहते हैं. इन्हें समझने की जरूरत है कि हमारे देश का पहिया विकास के नाम पर घूमेगा उनकी धर्म की राजनीति पर नहीं. पर इस सोच की मशाल को जलने के लिए एक चिंगारी की जरूरत है. वह चिंगारी केवल जनता के हाथ में है. इसे जलाना भी उसी के हाथ में है.
Religion Based Politics in India
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