सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश के निर्माण में पत्रकारों की भूमिका अहम रही है. पत्रकार सत्ता और नागरिकों के बीच संवाद-सेतु का काम करते हैं. पत्रकार जहाँ एक ओर सरकार के अच्छे कदमों की सराहना कर सशक्त लोकतंत्र को बढ़ावा देते हैं, वहीं उनके गलत कार्यों की सूचना देकर उन्हें उनकी भूल का एहसास करवाते हैं. समय-समय पर पत्रकारिता ने सरकार की बड़ी खामियों को उजागर किया है जिससे उन्हें सत्ता में बैठे लोगों का कोपभाजन बनना पड़ा है. लेकिन ये एक ऐसी सच्ची कहानी है जिसमें दो पत्रकारों की वजह से अमेरिका जैसे शक्तिशाली समझे जाने वाले राष्ट्र के राष्ट्रपति को अपने पद से इस्तीफा देने को मज़बूर होना पड़ा. जानिए पत्रकारिता के इतिहास की एक रोमांचक कहानी जिसने पत्रकारों के सामने एक मिसाल पेश की.
ये वो समय था जब भारत पाकिस्तान से ज़ंग जीत चुका था और एशिया का मानचित्र बदल चुका था. उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन इंदिरा गाँधी के विरोधी थे और उन्होंने इस युद्ध में पाकिस्तान की मदद करने की भरसक कोशिश की थी. वर्ष 1972-73 में एक अमेरिकी अख़बार पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय जोड़ने की ओर बढ़ चुकी थी. 17 जून 1972 को वाशिंगटन की पुलिस ने वाटरगेट होटल की इमारत पर स्थित ‘डेमोक्रेटिक नेशनल कमिटी’ के कार्यालय से पाँच लोगों को गिरफ्तार किया. उन्हें इसकी सूचना वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी फ्रैंक विल्स से मिली थी. वहाँ पुलिस को उन पाँच व्यक्तियों के पास से वॉकी-टॉकी, दरवाज़े अटकाने वाली वस्तुएँ, एक रेडियो स्कैनर जो पुलिस की फ्रीक्वैंसी का पता लगाने में सक्षम थी, दो कैमरा, आँसू गैस की बंदूकें इत्यादि मिली, जिससे उनका दिमाग ठनका.
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इस जाँच में जो सबसे बड़ी बात सामने आई वह यह थी कि उन पाँच लोगों में से एक सीआईए का भूतपूर्व कर्मचारी था. इसके अलावा वह व्यक्ति और उसके साथ सेंध लगा रहे साथी निक्सन को दुबारा राष्ट्रपति बनाने के लिए गठित समिति से जुड़े थे. जहाँ सारे समाचार-पत्रों ने इसे महज एक सामान्य-सी घटना के तौर पर देखा वहीं वाशिंगटन पोस्ट ने अपने दो पत्रकारों बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टैन को इस ख़बर के पीछे लगाया. अदालत में जैसे ही यह बात सामने आई कि पकड़े गये पाँच व्यक्तियों में से एक सीआईए में काम कर चुका है तो बॉब वुडवर्ड को कुछ अटपटा लगा. फिर वहीं से राष्ट्रपति निक्सन के इस्तीफे की कहानी शुरू हुई.
पकड़े गये व्यक्तियों से प्राप्त नोटबुक में उन लोगों के नामों को गुप्त-कूटों में लिखा गया था जिनके फोन टैप किये जाने थे. इस मामले की गंभीरता को देखते हुए इसकी जाँच एफबीआई को सौंप दी गई. वुडवर्ड और बर्नस्टैन जो ख़बरें छाप रहे थे ठीक वही सुराग एफबीआई को अपनी जाँच में मिल रही थी. इस पूरे कांड में वाशिंगटन पोस्ट के दोनों युवा पत्रकारों को सुरागों के बारे में जानकारी केवल एक स्रोत से मिल रही थी जिसका नाम जानने के लिए राष्ट्रपति निक्सन ने अपनी पूरी ताकत झोंक डाली थी.
यह स्रोत जिसे ‘डीप थ्रोट’ के नाम से जाना जाता था कोई और नहीं एफबीआई के उप-निदेशक डब्ल्यू मार्क फैल्ट थे. लेकिन दोनों पत्रकारों ने उनके नाम को इतना गोपनीय रखा था कि उस घटना के तीस साल बाद लोगों को डब्ल्यू मार्क फैल्ट के बारे में पता चल पाया.उन युवा पत्रकारों ने दो साल तक उस कांड से संबंधित ख़बरों को प्रमुखता से छापा. उस कांड में यह पता चला कि सरकारी अधिकारों का दुरूपयोग कर विरोधी पार्टी और कई विशिष्ट लोगों के फोन टैप किये गए. इस कांड में निक्सन के व्हाइट हाउस के कई लोगों का नाम जुड़ा पाया गया और कई कानूनों का उल्लंघन हुआ.
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अंत में न्यायालय और मीडिया के बढ़ते दबाव के कारण अमेरिका के राजनैतिक इतिहास में वो घटना घटी जो गंभीर और अनुसंधानात्मक पत्रकारिता में मील का पत्थर साबित हुई. राष्ट्रपति निक्सन को उन पत्रकारों की रिपोर्ट के कारण इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा. राष्ट्रपति निक्सन इंदिरा गाँधी के घोर विरोधी थे और उन्हें देखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे. यहाँ तक कहा जाता है कि वर्ष 1971 के युद्ध के दौरान उन्होंने पाकिस्तान की मदद करने के लिए सैन्य सहायता भेजी थी. Next…….
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