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हम भी पाकिस्तानियों से कम नहीं

कथित तौर पर पाकिस्तान में जासूसी करने वाले और वर्ष 1990 में लाहौर-फैसलाबाद में हुए श्रेणीबद्ध बम धमाकों, जिनमें 14 निर्दोष लोगों की जान गई थी, के आरोप में भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1991 में मृत्युदंड दिया गया. इससे पहले कि कानूनी तौर पर सरबजीत को फांसी दी जाती, कोट लखपत जेल (जिसमें सरबजीत बंद था) में मौजूद अन्य कैदियों ने सरबजीत पर घातक हमला किया जिसके बाद कुछ दिन तक अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग लड़ने के बाद सरबजीत ने आखिरकार दम तोड़ दिया.


घोटाले का माल पचाना आसान भी नहीं है


सरबजीत सिंह के साथ ऐसे क्रूरतम व्यवहार के बाद भारतीय जनता में काफी रोष था. यहां तक कि कई मानवाधिकार संगठनों ने भी इस घटना की खूब आलोचना की. भारतीय सरकार ने भी दबे मुंह पाकिस्तानी सुरक्षा व्यवस्था पर ताने कसे और इसे अमानवीय कृत्य बताकर खूब खरी-खोटी सुनाई लेकिन सरबजीत के शव को अभी तक मुखाग्नि भी नहीं दी गई थी और खबर आई कि इस घटना की प्रतिक्रिया के रूप में जम्मू-कश्मीर जेल में बंद एक पाकिस्तानी कैदी को भी अन्य कैदियों द्वारा इतनी बेरहमी से पीटा गया कि वह कोमा में चला गया और आज भी वह अस्पताल में अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है. बहुत हद तक संभव है कि उसका हश्र भी वही हो जो पाकिस्तानी जेल में बंद सरबजीत सिंह का हुआ.


अब सरकार गिरने का रास्ता साफ है


भारतीय संसद पर हमलों के दोषी अफजल गुरू को अचानक दी गई फांसी के बाद जब पाकिस्तानी संसद द्वारा भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया गया तो इसे भारत के अंदरूनी मामलों में दखल के तौर पर लिया गया और साथ ही इसका काफी विरोध हुआ. हम बिल्कुल सहन नहीं कर सके कि कोई भी बाहरी देश हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करे. लेकिन इससे पहले कि यह मामला ठंडा पड़ता, श्रीलंकाई सिंघलियों द्वारा वहां रहने वाले तमिलों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध डीएमके ने केन्द्र सरकार को मजबूर कर दिया कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रीलंका में हो रही ऐसी घटनाओं के प्रति आवाज उठाए.


इसे हमारी नाकामी कहें या पाक की हिमाकत


घटनाएं लगभग समान हैं लेकिन इस बार हम भूल गए कि यह श्रीलंका का अंदरूनी मामला है. जब हमें यह मंजूर नहीं था कि कोई हमारे मामलों में दखल दे तो हम कैसे यह मान सकते हैं कि हमारी यह हरकत श्रीलंका बड़ी आसानी से पचा लेगा.


नरेंद्र मोदी पर आरोप बर्दाश्त नहीं


एक पुरानी कहावत है जो भारतीय लोगों, फिर चाहे वह आम आदमी हो या फिर सरकारी नुमाइंदा, पर सटीक बैठती है “हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और. अब भले ही हमारे जहन को यह बात नागवार गुजरे लेकिन सच यही है हम जो दिखाते हैं असल में हम वैसे हैं नहीं. हम चाहते तो बहुत कुछ हैं, आरोप-प्रत्यारोपों में भी बहुत भरोसा करते हैं लेकिन जब बात आती है खुद एक उदाहरण पेश करने की तो या तो हम हम आंख के बदले आंख जैसी कहावतों का अनुसरण करने लगते हैं या फिर स्वार्थी बनकर हम अपनी विदेश नीति के साथ खिलवाड़ कर देते हैं.



हम खुद को अहिंसा प्रेमी देश तो दिखलाना चाहते हैं लेकिन अंदरूनी सुरक्षा के नाम पर हमारे हाथ में कुछ नहीं है. ना तो हम बाहरी मसलों के विषय में अपनी बनाई हुई नीति पर स्थिर रहते हैं और ना ही घरेलू हालातों को ही नियंत्रित कर पाते हैं.


नीतीश के वार पर भाजपा का पलटवार


हमारी विदेश नीति के तहत हमें किसी बाहरी मुल्क के हालातों में दखल देने की छूट नहीं दी गई है लेकिन संभावित तौर पर यह भी कहा जा सकता है कि हम अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए विदेश नीति में ही संशोधन कर लें. हम अपेक्षाएं तो बहुत रखते हैं लेकिन खुद करने की बारी आती है तो वही करते हैं जो हमें सही लगता है. इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि जिस गलती को हम गलत ठहरा रहे हैं अगर वही गलती हम करेंगे तो हममें और दूसरों में क्या फर्क रह जाएगा.



हम दूसरे राष्ट्रों से यह उम्मीद करते हैं कि वह दूसरे देश के लोगों के प्रति भी मानवीय भाव रखें और भारतीय सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप ना करें, लेकिन भारत में होती ये सभी घटनाएं हमें स्वयं अपनी नजरों में गिराने के लिए काफी हैं.



शायद पीएम इन वेटिंग बन ही जाएं प्रधानमंत्री

आखिर क्या सोच कर वापस आया होगा “जनरल”

मोदी नहीं आडवाणी पर दांव लगाने के लिए तैयार है भाजपा !!


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