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पुरानी नीति पर नई राजनीति

राजनीति की एक बड़ी पुरानी नीति है ‘साम, दाम, दंड, भेद’. ‘साम’ अर्थात् ‘समता’ से या ‘सम्मान देकर’, ‘समझाकर’; ‘दाम’ अर्थात् ‘मूल्य देकर’ या आज की भाषा में ‘खरीदकर’; ‘दंड’ अर्थात् ‘सजा देकर’ और ‘भेद’ से तात्पर्य ‘तोड़ना’ या ‘फूट डालना’ है. मतलब किसी से अपनी बातें मनवाने के चार तरीके हो सकते हैं – पहले शांतिपूर्वक समझाकर, सम्मान देकर अपनी बातें मनवाने का प्रयास करो. मान जाए अच्छा है, आपकी भी लाज रहे, मानने वाले की भी. पर अगर न माने, उसे मानने का मूल्य दो. मतलब जो भी उसकी अड़चन हो, उसके अनुसार मूल्य देकर उसे मनाओ. तब भी बात न बने, तो उसे इस मूर्खता के लिए दंडित करो. सितम उन्हें तोड़ेगा. लेकिन फिर भी बात न बने तो आखिरी रास्ता, ‘राजनीति का ब्रह्मास्त्र’ ‘भेद’ का प्रयोग करो; उनमें आपसी वैमनस्य पैदा करो, फूट डालो, वे जरूर मानेंगे. चाणक्य की यह नीति राजनीति शास्त्र की कुछ मूल नीतियों में है.


अंग्रेजों के शासनकाल में आखिरी दो नीतियां खासकर ‘भेद’ की नीति का बहुधा उपयोग किया गया. माना जाता है कि अंग्रेज 200 साल तक भारत पर शासन कर सके बस अपनी ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति के कारण. वह यही ‘भेद’ की नीति है जिसकी उपज हमारे ही राजनीति शास्त्र की देन है. हालांकि चाणक्य की यह नीति राज्य और देश के सामरिक विकास-विस्तार के लिए थी, आज इसकी मूल भावना को खोकर यह राजनीति और राजनीतिज्ञों की पहली पसंद बन गई है, जिनमें ‘साम’ को छोड़कर लगभग तीनों ही उपायों का प्रयोग बड़ी होशियारी से यहां किया जाता है. यह और बात है कि इन तीनों में इनकी भी सबसे पसंदीदा नीति ‘भेद’ ही है जो आज राजनीति की गलियों में सफलतापूर्वक धड़ल्ले से उपयोग हो रही है.


दंगे जब भी होते हैं इसकी त्रासदी से वहां रहने वाले हर इंसान को गुजरना पड़ता है जिसमें किसी समुदाय विशेष का कोई जुड़ाव नहीं होता. मुजफ्फरनगर दंगा भी इसका अपवाद नहीं था. लेकिन राज्य सरकार के प्रयासों में केवल मुस्लिमों की त्रासदी को महत्व देने और केवल मुस्लिम समुदाय के दंगा पीड़ितों के लिए पुनर्वास का काम करने पर सवाल उठने जायज हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कल (21 नवंबर) सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए यह पूछा कि मुजफ्फरनगर दंगों में सिर्फ मुसलमानों के दर्द की बात, उनके पुनर्वास की बात क्यों की जा रही है? दंगों में हिंदू-मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोग पीड़ित हुए, तो पुनर्वास में राज्य सरकार द्वारा यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है? हालांकि कोर्ट ने यह नाराजगी मुजफ्फनगर दंगों की जांच स्वतंत्र एजेंसी द्वारा कराए जाने की राज्य सरकार की अपील के संबंध में जमा किए गए पुनर्वास ब्योरे पर जाहिर की है. राज्य सरकार ने भी इस पर अपना पक्ष यह कहते हुए कि ‘मुस्लिमों के पुनर्वास संबंधित ब्योरा केवल इस आधार पर बनाया गया क्योंकि केवल वे ही राहत शिविरों से लौटना नहीं चाहते थे’, अपना पक्ष बेदाग साबित कर दिया, लेकिन यह इतनी सीधी बात नहीं. यह उत्तर प्रदेश सरकार, अन्य सरकारें, कोर्ट और आम जनता सभी जानते हैं. गहरे अर्थों में ‘भेद’ की प्रक्रिया का पालन करते हुए वोटों की राजनीति में समुदायों के नाम पर अपना हित साधना इसका एकमात्र लक्ष्य होता है सबको पता है.

क्या इससे देश की छवि को नुकसान नहीं पहुंचेगा?


वर्तमान राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप के साथ जो सबसे त्रस्त है, वह है ‘जनता’. हर कोई जीतना चाहता है. जीतने के लिए उसे वोट चाहिए, वोट तो जनता के पास ही है. इसके लिए उसे मनाना पड़ेगा कि हमें वोट दो. लेकिन जनता हमें वोट क्यों देगी? हर किसी के पास खुद के लिए यह सबसे बड़ा सवाल होता है और अपने समकक्ष खड़े होने वाले हर नेता, हर पार्टी से वह यही पूछकर उसकी बखिया उधेड़ने की कोशिश करता है? जनता के पास भी जब सैकड़ों प्रत्याशी हैं, तो वह भी हर प्रत्याशी चेहरे पर खुद से यही सवाल पूछती है, ‘इन्हें वोट क्यों दें?’ सवाल जब भी आते हैं, कोई जवाब चाहिए और जरूर चाहिए वरना बड़ी समस्या पैदा हो सकती है. जनता के लिए समस्या कि वह किसको वोट दे और जवाब न मिले तो किसी को वोट न दे, प्रत्याशियों के लिए समस्या कि बिना वोट उन्हें विशेष बनाने वाली कुर्सी नहीं मिलेगी और सबसे बड़ी समस्या देश के लिए कि उसे चलाने वाला राजनीतिक ढांचा ढह जाएगा. इसलिए इन सवालों के जवाब में हर राजनीतिक दल शायद अब राजनीतिज्ञ चाणक्य की इस अभेद्य ‘भेद’ नीति को अपने वोट पाने का सबसे सुरक्षित जवाब मानते हैं. अंग्रेजों ने अगर इसे उपयोग कर 200 साल तक इन पर राज किया, ये 5 सालों के सुरक्षित साम्राज्य की उम्मीद तो कर ही सकते हैं. उम्मीदों का आधार भी है.


यह भावनाओं का देश है. भेद सबसे ज्यादा असर भावनाओं पर करता है, और भावनाओं के जो सबसे करीब है वह है ‘धर्म’. हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में अपने धर्म से गहरा जुड़ा होता है. शायद इसलिए क्योंकि धर्म किसी के लिए भी एक प्रकार से ‘गुरु’ समान है. जन्म से इंसान दो लोगों से सबसे ज्यादा जुड़ा होता है, एक अपने जन्मदाता ‘माता-पिता’ से और दूसरे ‘धर्म’ से. जन्म से ही यह इन नामों के साथ, इनकी सीख के साथ ही चलता है और इनसे जुड़ा कोई अपमान वह बर्दाश्त नहीं कर पाता. इसका सबसे ज्यादा लाभ आज राजनीति में इस ‘भेद’ नीति को मिलती है. जहां मुसलमानों की बहुलता हो, हिंदुओं के अत्याचार के नाम पर उनकी भावनाओं को भड़काओ; जहां हिंदुओं की बहुलता हो, मुसलमानों के अत्याचार के नाम पर उनकी भावनाओं को भड़काओ. जहां इसकी भी संभावना न हो, जाति के नाम पर उनकी भावनाओं को उबाल दो. इसका कोई सार्थक अर्थ नहीं, मतलब बस भावनाओं को उबाल देकर उसका विस्फोट करने से है, जिसकी ऊर्जा में जलने वालों को मरहम लगाने के नाम पर उनके सवालों का जवाब देना है…’हम आपके जख्म का मरहम हैं, इसलिए हमें वोट दो’.

छींटाकशी का दौर शुरू हो चुका है


चाण्क्य की इस नीति को आज कोई एक, इक्का-दुक्का प्रयोग कर रहा है यह कहना सरासर गलत होगा. आज राजनीति के नाम पर केवल यही हो रहा है. राजनीति जो एक राज्य के सही संचालन और उसके सामाजिक विकास के लिए था. धर्म के नाम पर ‘भेद’ की राजनीति केवल वोटों को सुरक्षित करने का तरीका हो सकती है, राज्य का विकास और विस्तार इस वैमस्यता में कहीं पीछे छूट जाता है. पर इसकी किसी को कोई चिंता नहीं जान पड़ती. राजनीतिक बयानबाजियां और आरोप-प्रत्यारोप भी इसी का एक हिस्सा हैं. इसलिए भले ही सुप्रीम कोर्ट ने आज इस पर नाराजगी जताई हो लेकिन इसकी इस सच्चाई से हम मुंह नहीं मोड़ सकते और यह सच्चाई यह भी कहती है कि यह ‘भेद’ जो हुआ, जो हो रहा है, वह होता ही रहेगा क्योंकि उनके कई सवालों का यह जवाब है. इसलिए इसका हल सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी नहीं निकाल सकती. जनता को इसका हल खुद निकालना होगा, देश को इसका हल सम्मिलित रूप से निकालना होगा.


राजनीति की नीतियां ‘नीति-निर्देशक’ जरूर बनाते हैं लेकिन उसकी दिशा जनता ही तय करती है. राजनीति, लोकतंत्र की इस मूल भावना को याद रखना होगा, आम जनता को समझना होगा. हर किसी के लिए अपना धर्म सम्माननीय होता है और होना भी चाहिए. लेकिन धर्म के नाम पर उसकी सीखों को ही भूल जाना धर्म को निरुद्देश्य साबित कर देता है. कोई भी धर्म, इसके नाम पर अहंकार और दूसरों का अपमान करने की सीख नहीं देता. इसकी इस मूल भावना को समझते हुए इसका मान करना होगा. अगर कोई नहीं मानता, इसके विरुद्ध कोई कार्य करता है तो वह धर्म-रहित है, उसका धर्म से कोई वास्ता नहीं, केवल अहंकार और अपने स्वार्थ से वास्ता है. राजनीतिक मानकों के लिए इस भावना के दुरुपयोग की इस ‘भेद-भाषा’ को जनता को खुद ही समझना होगा. अपने सवालों के जवाब के लिए एक ‘नीतिपरक’ नीतियों का खाका नीति-निर्धारकों को देना होगा. इससे कोई अर्थ नहीं कि वह किस समुदाय से वास्ता रखता है. राजनीति में कभी भी समुदाय विशेष की भावना आने का मूल अर्थ समझना होगा वरना ऐसी नाराजगी के कारण आगे भी कोर्ट और जनता दोनों को मिलते रहेंगे.

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