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तीसरे मोर्चे की संभावना: काल्पनिक या प्रासंगिक

वर्तमान समय के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि जनता का सरकार के प्रति जो विश्वास होना चाहिए था वह पूरी तरह समाप्त हो चुका है. भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे बड़े मुद्दों पर सरकार की तरफ से निराश जनता आज किसी पर भी भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है. भारत में दो मजबूत गठबंधन (यूपीए और एनडीए) मौजूद हैं, जिनका नेतृत्व देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां (कांग्रेस और भाजपा) करती हैं. आमतौर पर इन्हीं में से एक गठबंधन की ही सरकार सत्ता धारण करती है लेकिन मूलभूत मुद्दों पर जनता का विश्वास अपने नाम नहीं कर पाती. वर्तमान हालातों के मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का हाल भी कुछ ऐसा ही है, जो जनता के साथ-साथ अपने साथी दलों का विश्वास भी खोती जा रही है. पहले ममता बनर्जी ने खुद को यूपीए से अलग किया, फिर करुणानिधि और अब बाहरी सहयोगी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी कांग्रेस से अलग होने जैसे इशारे देने लगे हैं और मुलायम के अलग होते ही सरकार अल्पमत में आ जाएगी. ऐसे में मध्यावधि चुनावों से जुड़े कयास लगाए जा रहे हैं और यही कारण है कि सत्ता के दो मुख्य ध्रुवों के प्रति जनता के अविश्वास के मद्देजनर तीसरे मोर्चे के उदय की संभावना को बल मिलने लगा है.


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इस परिदृश्य में मुख्य सवाल यह है कि क्या छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल, जो फिलहाल किसी भी गुट में शामिल नहीं हैं, की एकजुटता से बना यह तीसरा मोर्चा इतना ताकतवर होगा जो मुख्य दो गठबंधनों को पटखनी देकर अपनी सरकार बना पाने में सक्षम हो जाएगा?



मुलायम ने इस बार जो दहाड़ लगाई उसकी आवाज केन्द्रीय स्तर तक सुनाई दी है और वह इशारों-इशारों में अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं भी स्पष्ट कर चुके हैं. आज जब कांग्रेस और भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे सर्वसम्मति के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया जाए तो ऐसे में तीसरे मोर्चे की सरकार के कयास और भी तेज होंगे ही.


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लेकिन यहां सवाल यह उठता है व्यक्तिगत इच्छाओं और निजी हितों को प्रमुखता देने वाले गुटों के समूह तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने की संभावनाएं कितनी हकीकत बन सकती हैं?



शायद नहीं क्योंकि अगर भारत के राजनीतिक अतीत पर नजर डाली जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तीसरे मोर्चे का केन्द्रीय राजनीति में कदम रखने जैसा प्रयोग कभी भी सफल नहीं हो पाया है. हित समान होने के बावजूद इन दलों में अहम की टकराहट साफ देखी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह एक-दूसरे के साथ सहयोग की भावना के साथ कदम बढ़ाकर नहीं चल पाते.


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अगर क्षेत्रीय राजनीति से बाहर निकलकर वह राष्ट्रीय राजनीति की ओर रुख कर भी लेते हैं तो जाहिर सी बात है कि एक समूह में बंधने का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत हित साधना होता है और जब ऐसा नहीं हो पाता तो वे सरकार गिराने जैसे संजीदा हालात पैदा करने का भी माद्दा रखते हैं.


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उनका सोचना यही होता है कि भले ही उन्हें कुछ ना मिले लेकिन पार्टी में शामिल दूसरे दल के लोगों के हाथ भी कुछ नहीं आना चाहिए. इनमें सबसे अहम सवाल होता है कि सर्वसम्मति के साथ प्रधानमंत्री का पद किसे दिया जाए और यही एक सवाल ऐसा है जो सबसे पहले तो तीसरे मोर्चे में शामिल दलों को एक साथ जोड़कर ही नहीं रख पाता. अगर मान मनौवल के बाद एक साथ हो भी गए तो लंबे समय तक साथ नहीं चल पाते.



सभी दल समान शर्तों से जुड़े होते हैं और लगभग समान संख्या में सांसदों के होने के कारण कोई भी दल इतना बड़ा नहीं हो पाता कि वह गुट के अंदर ही खुद को महत्वपूर्ण साबित कर सके. ऐसे हालातों में जब एक गठबंधन का रूप लेकर वह सरकार बनाते और मुखिया तय करते हैं तो शुरुआती समय से ही मांग और ब्लैकमेल की राजनीति उन पर हावी रहती है.


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गठबंधन में शामिल सभी दलों की मांगें इतनी अलग होती हैं कि मुखिया ना तो किसी की मांग को पूरा कर सकता है और ना ही किसी की बात मानने से मना ही कर पाता है. ऐसे हालातों में जो भी परिणाम सामने आता है वह देश हित में नहीं होता.


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किसी एक दल की केन्द्रीय सरकार कहलवाना अब कल की बात हो चुकी है. यही वजह है कि जो भी सत्ता में आएगा वह बहुमत के साथ नहीं बल्कि गठबंधन के आधार पर ही शासन कर पाएगा. यूपीए और एनडीए के अलावा अब जब तीसरे मोर्चे के भी अस्तित्व में आने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है तो यह कहना कुछ हद तक सही ही है कि यह पूरी तरह से एक काल्पनिक अवधारणा पर ही केंद्रित है.


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