किरण बेदी को सामान्य लोग केवल इसलिए जानते हैं क्योंकि उन्होंने इंदिरा गाँधी की गाड़ी के ऊपर अवैध पार्किंग का चालान काट दिया था. इससे लोगों को यह लगता है कि किरण बेदी बेहद ईमानदार और कड़ी अधिकारी थी. लेकिन किरण बेदी के व्यक्तित्व के कुछ और भी पहलू हैं जो आज तक कई भारतवासियों के संज्ञान में नहीं आए हैं.
पद का बेजा इस्तेमाल-
मिज़ोरम में उप महानिरीक्षक (रेंज) के पद पर रहते हुए किरण बेदी ने अपने पद का बेजा इस्तेमाल करते हुए अपनी बेटी का नामांकन लेडी हर्डिंग महाविद्यालय में एमबीबीएस पाठ्यक्रम में करवा दिया. नामांकन करवाना गलत नहीं था लेकिन किरण बेदी ने अपनी बेटी का नामांकन उत्तर-पूर्व भारतीय कोटा (नॉर्थ ईस्ट कोटा) के तहत करवाया था. ये अलग बात है कि उनकी बेटी ने कभी एमबीबीएस का पाठ्यक्रम पूरा नहीं किया और पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली गई. इससे भी बड़ी बात यह हुई कि उन्होंने इस संबंध में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भी कोई सूचना नहीं दी. दरअसल उत्तर भारतीय कोटा की सुविधा के पीछे उस क्षेत्र के युवाओं को आगे बढ़ाने की मंशा थी और एक अधिकारी के तौर पर किरण बेदी यह बात बहुत अच्छी तरह जानती थी, लेकिन उन्होंने कानूनी संरचना में ख़ामी का फायदा अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए किया.
बिना अनुमति दो बार पद छोड़ा और चार बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई –
वर्ष 1983 में गोवा और 1992 में मिज़ोरम के पुलिस अधिकारी का पद उन्होंने बिना उच्च अधिकारियों की अनुमति के छोड़ दिया. इसके अलावा चार विभिन्न पदों पर रहते हुए वो वहाँ के लिए निश्चित अपनी सेवा की समयावधि को पूरा नहीं कर पाई. ये अवसर थे- गोवा की पुलिस अधीक्षक, उप महा निरीक्षक(रेंज) मिज़ोरम, निरीक्षक(कारागार) तिहाड़ कारा और निरीक्षक चंडीगढ़ पुलिस. 25 जनवरी 1984 को गोवा पुलिस के निरीक्षक राजेंद्र मोहन को लिखे पत्र में किरण बेदी ने स्वयं स्वीकारा था कि वो अवकाश पर हैं जिसकी उन्हें स्वीकृति नहीं दी गई थी.
तीस हजारी के वकीलों के हड़ताल का बर्बरतापूर्वक दमन-
वर्ष 1988 में राजेश अग्निहोत्री नामक वकील पर चोरी का आरोप लगा. लेकिन पुलिस द्वारा उसे हथकड़ी पहना कर लेकर जाने के खिलाफ दिल्ली बार एसोसियेशन हड़ताल पर चली गई. उनके हड़ताल को खत्म करने के लिए तत्कालीन पुलिस उपायुक्त (उत्तरी दिल्ली) किरण बेदी के आदेश पर पुलिस बलों ने तीस हजारी के हड़ताल कर रहे वकीलों की जम कर पिटाई की. उस समय उन पर यह आरोप भी लगे थे कि एक महापौर की मिलीभगत से किरण बेदी ने वकीलों के खिलाफ हिंसा के लिए एक भीड़ को संगठित करने और उन्हें तीस हजारी तक पहुँचाने में सहयोग की थी. वकीलों की माँग पर मामले की जाँच के लिए न्यायाधीश डी.पी वाधवा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई. इस समिति ने अपनी जाँच पड़ताल में किरण बेदी और पुलिस बलों के खिलाफ लगे आरोपों को सही पाया. इस समिति के तथ्यों को स्वीकारते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसे संसद के पटल पर रखते हुए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जाँच के आदेश दे दिए. इसका मतलब यह था कि मंत्रालय के आदेश पर चल रही विभागीय जाँच में भी अगर किरण बेदी को दोषी ठहरा दिया जाता तो उनको सेवा से बर्ख़ास्त किया जा सकता था. लेकिन फिर मामले को दबा दिया गया और उस फाइल का ठौर छीन लिया गया.
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राज्यपाल और उच्च अधिकारियों ने जारी किए हैं उनकी कार्यशैली के खिलाफ लिखित नोट-
उनकी सेवा के दौरान ऐसी भी स्थितियाँ आई है जब राज्यपाल ने उनके खिलाफ लिखित नोट जारी किए हैं. मिज़ोरम में पोस्टिंग के दौरान वहाँ के राज्यपाल ने किरण बेदी से उनके द्वारा ‘प्रेस में सूचना लीक’ करने का जवाब माँगते हुए अरूचि(डिसप्लेजर) का एक औपचारिक नोट जारी किया था.
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पुलिस में सेवा के दौरान कोई पदक या मेडल नहीं-
किरण बेदी उन पुलिस अधिकारियों में से है जिन्हें भारतीय पुलिस सेवा में अधिकारी के तौर पर काम करते हुए कभी भी राष्ट्रपति से कोई पदक नहीं मिला. जबकि पुलिस में कार्य के दौरान विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति द्वारा हर वर्ष पदक देकर पुलिस अधिकारियों को सम्मानित किया जाता है.
इसके बावज़ूद भी किरण बेदी अपनी वरिष्ठता के आधार पर पुलिस आयुक्त का पद चाहती थी जिसके न मिलने पर उन्होंने पुलिस अधिकारी के तौर पर भारत और यहाँ के नागरिकों की सेवा करने से अप्रत्यक्ष रूप से इंकार करते हुए अपना इस्तीफा सौंप दिया. Next…..
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