1960 से पहले तक लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होते रहे. हालांकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग द्वारा हर 5 साल या उससे कम वर्षों के अंतराल पर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव आयोजित किए जाने का प्रावधान है, 1957 तक केंद्र और राज्यों में लोकसभा और राज्यसभा के लिए अलग से चुनाव कराने की जरूरत नहीं पड़ी.
इस वक्त तक न केवल चुनाव प्रक्रिया शांतिपूर्ण होती थी बल्कि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह सरकारें भी स्थिर यानि पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा करती थी. 1960 में कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू होने और मिड-टर्म चुनावों की जरूरत पड़ने पर यह परंपरा टूट गई. इस तरह केंद्र और राज्यों में अलग-अलग समय कार्यकाल पूरा होने की स्थिति में चुनाव भी अलग-अलग होने लगे.
एक साथ चुनाव होने के जिन बड़े फायदों से हम वंचित रह गए:
1. पैसे की क्षति और भ्रष्टाचार की मुद्दा: पहले लोकसभा और विधानसभा के लिए एक ही समय चुनाव होने के कारण राज्य और केंद्र स्तर पर पार्टी और प्रत्याशियों को अलग-अलग चुनाव प्रचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी. इस तरह एक प्रचार के खर्चे में पूरा चुनाव निपट जाता था. राज्यों और केंद्र में अलग-अलग चुनाव होने लगे तो दोनों के लिए धन राशि भी अलग-अलग खर्च करने की जरूरत पड़ी. चुनाव जीतने के लिए प्रचार की जरूरत होती है और प्रचार के लिए किसी न किसी प्रकार पैसे की जरूरत जरूर पड़ती है.
इस तरह चुनाव जीतने के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत पड़ने के कारण ईमानदार लेकिन गरीब तबके लिए राजनीति में आगे आना मुश्किल हो गया. इस तरह कई रूपों में चुनावों के लिए पैसे के लेन-देन और अपना हित साधने की राजनीति भी बढ़ी. लोग प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार के लिए फाइनेंस करने और सरकार बनने के बाद उसके बदले अपना कोई हित साधने की पहल होने लगे. इस तरह भ्रष्टाचार की शुरुआत हुई जो अब शायद ही कभी रुके.
2. चुनाव व्यवस्था के लिए खर्च बढ़े: पार्टी और प्रत्याशियों की तरह चुनाव आयोग (इलेक्शन कमिशन) के लिए चुनाव व्यवस्था में लगने वाले खर्च बढ़ गए. पहले जब राज्यों और केंद्र में एक साथ चुनाव होते थे तो एक ही खर्च में दोनों ही चुनाव संपन्न हो जाते थे क्योंकि एक ही बैलेट पत्र, पॉल स्टेशन, पॉल संपन्न कराने और वोट काउंटिंग के लिए अधिकारी भी अलग-अलग हायर नहीं करने पड़ते थे. अलग-अलग चुनाव होने की दशा में अब इसी काम के लिए अलग-अलग धन खर्च करने की जरूरत पड़ने लगी. इस तरह चुनावों में लगने वाला राजकोषीय घाटा बढ़ने लगा.
बहरहाल अब के समय और भविष्य में भी शायद ही कभी वापस लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होने के आसार बनें.
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