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रियाद घोषणा पत्र और प्रत्यर्पण संधि से सामरिक भागीदारी का नया दौर

भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सऊदी अरब की यात्रा के दौरान कई ऐसे जरूरी कदम उठाए गये जिसे देख कर यह स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है कि हमारी विदेश नीति एक बड़े उद्देश्य के साथ आगे बढ़ रही है.

 

प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान भारत और सऊदी अरब ने आतंकवाद तथा धन शोधन की समस्या से संयुक्त तौर पर लड़ने का संकल्प लिया और सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, ऊर्जा तथा रक्षा क्षेत्रों को मिलाकर एक सामरिक भागीदारी के लिए सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से प्रत्यर्पण संधि सहित कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए.

 

दोनों पक्षों ने रियाद घोषणा पत्र जारी किया जिसमें दोनों देशों के बीच सामरिक भागीदारी का नया दौर शुरू करने की बात कही गई है. इतना ही नहीं, भारत ने सऊदी अरब को कच्चे तेल की भंडारण सुविधाओं के विकास में भागीदार बनने के लिए भी आमंत्रण दिया है.

 

अंतरिक्ष विकास के क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन तथा ‘किंग अब्दुलअजीज सिटी फॉर साइंस एंड टेक्नॉलोजी’ के बीच वाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग, संयुक्त शोध तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग के लिए एक करार हुआ है. एक अन्य जरूरी प्रावधान के तहत टाटा मोटर्स आठ करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के स्कूली बसों की आपूर्ति सऊदी अरब को करेगा. इस घोषणा पत्र में भारत की कच्चे तेल की बढ़ती जरूरत पूरी करने और अक्षय ऊर्जा के नए क्षेत्रों की पहचान करने की बात भी कही गई थी.

 

दोनों पक्ष आतंकी गतिविधियों, धन शोधन, मादक पदार्थो के कारोबार और हथियार तथा मानव तस्करी से जुड़ी जानकारी के आदान प्रदान में सहयोग को विस्तार देने तथा इन खतरों से निपटने के लिए संयुक्त रणनीति विकसित करने पर सहमत हुए हैं. इससे पूर्व दोनों देशों के बीच वर्ष 2006  में दिल्ली घोषणा पत्र के द्वारा सामरिक भागीदारी मजबूत करने के महत्व पर जोर दिया गया था.

 

लेकिन दोनों देशों के बीच जिस सबसे महत्वपूर्ण समझौते की सबसे अधिक चर्चा हो रही है वह है प्रत्यर्पण संधि. इसके द्वारा मौजूदा सुरक्षा सहयोग नया आयाम मिल सकेगा साथ ही दोनों देशों में मौजूद आपराधिक और  वांछित व्यक्तियों को गिरफ्त में लेने में मदद मिलेगी.

 

जिस संधि को कर भारत फूले नहीं समा रहा है, आइए देखते हैं कि उसकी हकीकत क्या है. भारत ने अभी तक विश्व के कई देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि किया है. लेकिन इसके द्वारा अभी तक हम वांछित अपराधियों और आतंकवादियों को वापस लाने में असफल ही अधिक हुए हैं. हमारी सक्षम एजेंसियां जैसे सीबीआई अक्सर विदेशों से सहयोग ना मिलने का रोना रोती हैं. और यह रोना उन देशों के मामले में भी होता रहा है जिसके साथ हमारा एक्स्ट्राडीशन एग्रीमेंट रहा है. तो फिर क्या इस बार की संधि से कुछ नया होके रहेगा? क्या पाकिस्तान और सऊदी अरब से गहरा संबंध रखने वाले देश के दुश्मन दाउद को वापस ला कर सजा दिलाई जा सकेगी?

 

प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान उनके कैबिनेट के अनन्य सहयोगी शशि थूरूर का विवादास्पद बयान भी आया जिसमें उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि भारत और पाकिस्तान संबंधों में सऊदी अरब वार्ताकार के तौर पर अहम भूमिका निभा सकता है. हैरत इस बात की है कि यह बयान उस सरकार के विशिष्ट सहयोगी द्वारा दिया गया जो पाकिस्तान के साथ जम्मू-काश्मीर मामले पर तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की विरोधी रही है और भारत इस मसले पर सीधा और स्पष्ट रुख रखता है.

 

क्या सरकार के भीतर बैठे लोगों के पास इतनी सी सामान्य समझ नहीं बाकी रह गयी है कि विदेश नीति के संवेदनशील मुद्दे पर अनाप-शनाप बयान देने से पहले कुछ सोचा-समझा नहीं जा रहा है. और बाद में यह कह कर पल्ला झाड़ लिया गया  कि “मैंने मीडिएटर नहीं इंटरलॉक्यूटर कहा है.”

 

देखा जाए तो शशि थरूर का यह बयान दर्शाता है कि विदेश नीति के मामले पर सरकार स्वयं असमंजस में है. उसे यह तय करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है कि पाकिस्तान के साथ कैसे संबंध रखने हैं. अभी हाल ही में भारत सरकार ने पाकिस्तान से बेशर्त वार्ता स्वीकार कर यह जता दिया था कि आतंकवाद पर पूर्ण रोक के पश्चात वार्ता उसकी मूल प्राथमिकता में नहीं शामिल है. लेकिन जब वार्ता हुई तो परिणाम सबके सामने है. अतंतः पाकिस्तान की हठधर्मिता से बात जस की तस रह गयी. ऐसे में बार बार सरकार के विदेश राज्य मंत्री की ओर से आने वाले बयान देश को ही धर्म संकट में डाल दें तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?

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