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येदियुरप्पा बिना भाजपा

कटाक्ष
कटाक्ष
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राजनीति जितनी कमाऊ है उतनी ही मुश्किल भी क्योंकि जब मुसीबत आती है तो चारों तरफ से आती है और उस समय ऐसी हालत होती है जिसमें ना तो खुद को बचाने के लिए कुछ किया जा सकता है और ना ही दूसरों पर प्रहार किया जा सकता है, जो कि भारतीय राजनीति का एक अभिन्न अंग है. राजनीति क्या-क्या रूप दिखाती है यह भाजपा अच्छी तरह से जान गई है. अंदरूनी कलह से जूझती भाजपा हर तरफ से भंवर में घिरती जा रही है. कोई ऐसा रास्ता नजर नहीं आ रहा है जहां से प्रकाश की नई किरण आए और भाजपा की मुसिबतों में कुछ कटौती हो.


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येदियुरप्पाकी बगावत: येदियुरप्पा  द्वारा की गई विशाल रैली में जितना लाभ खुद येदियुरप्पा  को ना पहुंचा होगा उससे कहीं ज्यादा भाजपा को उससे नुकसान हुआ है. पहले से क्या कम थी भाजपा की मुसीबत जो और एक झेलने के लिए तैयार कर लिया खुद को. मोदी से लेकर नितिश कुमार तक न जाने कितने ही मुद्दों पर भाजपा सहमति बनाने की कोशिश कर रही है. अध्यक्ष नितिन गडकरी के बारे में जो बातें सामने आई हैं उससे भी एक गहरा आघात ही पहुंचा है. बात और भी दयनीय तब हो जाती है जब यह सब चुनाव के समय ही हो रहा है. अब इन सबसे भाजपा किस हद तक प्रभावित होगी यह तो समय ही बताएगा.


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अब क्या होगा ?: भाजपा किन शर्तों के साथ सत्ता में आना चाहती है यह देखने वाली बात होगी. येदियुरप्पा का अलग पार्टी बनाना शायद एक अच्छा कदम नहीं साबित होगा भाजपा के लिए. जहां तक अंदरूनी कलह की बात है तो यह बात सब के सामने आ ही गई है. जहां यशवंत सिंह जैसे बड़े नेता नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग करने लगे थे और इस बारे में यशवंत सिन्हा पर टिप्पणी भी की गई थी, वहीं इनका साथ न लेते हुए राम जेठमलानी ने दूसरे कार्यक्रम में हाथ लगा दिया और शायद यह सहन नहीं हुआ भाजपा से और उसे इतने कड़े फैसले उठाने ही पड़े. जहां एक तरफ भाजपा के पास सत्ता नहीं है वहीं ऐसे विवाद और अधिक परेशानी का कारण बन रहे हैं. अंदरूनी कलह की आग से जलती भाजपा को अब शांति कैसे मिलेगी यह देखने वाली बात है.


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