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आज़ादी के पहले लड़ना शायद उतना मुश्किल न होगा जितना कि आज हो गया है. पहले गोरे थे वो अलग थे हमसे. हम उनमें और खुद में अंतर कर सकते थे, पर आज प्रतिवाद करने वाले भी हम ही हैं और अत्याचार करने वाले भी हममें से ही हैं. फ़िर भी एक लोकतंत्रिक देश के पास प्रतिवाद करना ही मात्र एक विकल्प होता है. जहां न सुनी जाती है किसी की बात और न ही वो आज़ादी दी जाती है कि आप ‘’उनके’’ प्रति कुछ कहें. ऐसा देश बनने में अभी भारत को समय लगेगा पर यहां के ‘’विशिष्ट’’ निरंतर लगे हुए हैं इस कमी को पूरा करने में. शायद नहीं यकिनन ही उनको इस विकास में कामयाबी मिलेगी अगर देश ऐसे ही उनके दिखाये सपने देखता रहेगा.
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आखिर कैसे हो इनकी तुलना
पृथक करना एक सामान्य प्रक्रिया नहीं है. यह उतनी ही जटिल क्रिया है जितना किसी मंत्री के आमदनी का हिसाब लगाना. ना जाने कितने वर्षों से हम ढोते आ रहे हैं इनके वादों को और ना जाने कब तक ऐसे ही ले जाना होगा इन्हें. वो दिखाये स्वप्न कब पूरे होंगे अब इसकी चिंता सताने लगी है. क्योंकि हम समझदार हुए हैं आगे से पर कहीं समझदार होना डर के नये सूत्र न सामने ले आये. जिस अटल विश्वास के साथ कुछ नये चेहरे सामने आ रहे हैं उनके साथ जनता का एक स्नेहपूर्ण रिश्ता बन रहा है या वो उनसे अधिक सक्षम हैं आम लोगों से अपने को जोड़ पाने में. घर-घर जा कर बिजली के लाइन जोड़ना शायद ‘’उनके’’ लिए नाटकीय हो पर यह नाटक मौजूदा “विशिष्ट” करते तो शायद इस प्रकार लोगों का विश्वास नहीं खो देते. मंच पर खड़े हो कर भाषण देना आसान है पर मंच से नीचे उतर कर आम लोगों के दिलों में खुद के प्रति विश्वास पैदा करना कहीं ज्यादा मुश्किल और आज तक भारत में ऐसे कम ही ऐसे राजनेता आये जो इस काम को कर सके.
लोकतंत्र की हत्या
लोगों के मन में ऐसे विचार ही नहीं शेष हैं जिससे देश का हित किया जा सकता है. पहले सिर्फ फूट की राजनीति होती थी पर आज फूट के साथ-साथ लूट की भी राजनीति हो रही है. तालों में बन्द पड़े हैं वो आदर्श जो एक शासक को जनता के लिए प्रिय बनाते हैं, पर ना तो यहां किसी में प्रिय बनने की चाह है और न ही वो जनता के मानसिक अवस्था से रूबरू होना चाहते हैं. मौलिकता विहीन राजनीति देश को किसी भी रूप में एक सफल और विकासशील देश नहीं बना सकती है. किसी भी मायने में उस वर्ग से जुड़ना ही होगा जो प्रगति में एक अच्छा योगदान दे सके नहीं तो मात्र बहलाने से कितने दिन किसी पर राज किया जा सकता है. द्वन्द उतना ही भयावह होता है जितना की आक्रोश व्याप्त मनुष्य और आक्रोश को आसानी से दबाया नहीं जा सकता है. आज के भारतीयों में इतना आक्रोश भरा है इस प्रकार के कुशासन के प्रति कि अपना विकल्प खुद तलाशने निकल पड़े हैं अब जनता बिना किसी मुखौटे के बिलकुल निडर हो कर सामने आ रही है.
और “जीजा जी” भी अपने पैर फ़ैलाने लगे हैं
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