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जातिगत भेदभाव से त्रस्त हो कर क्रांति का आगाज करना अच्छी बात है पर उसे निर्णायक रूप देना उससे भी ज्यादा जरूरी होता है. क्रांति मूक तो नहीं होती पर अगर उसे सही दिशा नहीं प्रदान की जाए तो वो अंधी जरूर हो जाती है और अंधापन जितना खतरनाक दूसरों के लिए होता है उससे कहीं ज्यादा स्वयं के लिए होता है. इससे बचने का मात्र यही एक विकल्प है कि आप सचेत रहें और उसे सही दिशा प्रदान करते रहें. नस्ल भेदी और जातिवादी आंदोलन के कई रूप पूरे संसार भर में देखने को मिले हैं पर कई आंदोलनों में देखा गया है कि वो कुछ दिनों के उपरांत अपने मुख्य आदर्श से अलग हो गए. कुछ ऐसा ही कभी बसपा सुप्रीमो कहे जाने वाले स्व. कांशीराम के आंदोलन में भी देखने को मिला जिन्होंने दलितोत्थान के लिए क्रांति की शुरुआत की थी. कांशीराम ने दलितों की दयनीय अवस्था से त्रस्त होकर एक सकारात्मक आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की थी तथा इसे एक निर्णायक लड़ाई के बाद अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया था. किंतु हश्र जैसा कि इस तरह के आंदोलनों के साथ होता आया है, वही हुआ.
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फिर से वही गलती
जिस मंतव्य को लेकर बाबा साहेब अंबेडकर ने दलितों के हित की लड़ाई आरंभ की थी और उसे सार्थक करने के लिए हर संभव प्रयास किया था, ठीक उसी प्रकार कांशीराम ने भी स्थिति को समझते हुए इस प्रणाली को सही दिशा देने के लिए बाबा साहेब द्वारा रचित मानचित्र को फिर से रेखांकित करना शुरू किया. टुकड़ों में विभाजित दलितों को एक सटीक मार्ग देना और सामान्य जन को प्राप्त होने वाली सुविधाओं से उन्हें वंचित ना रखने की विचारधारा प्रबल रूप से विद्यमान थी कांशीराम में. किंतु सारी स्थितियों से रूबरू कांशीराम से भी वही गलती हुई जो बाबा साहेब के साथ हुई थी. अपने अंतिम दौर में वे इस पूरी क्रांति पर अपना नियंत्रण खो बैठे. जिसका परिणाम यह हुआ कि जिन वर्गों के विरोध में उन्होंने प्रतिवाद किया था उन्हें तो कोई खास फायदा नहीं हुआ पर अब स्थिति ऐसी हो गई कि दलित खुद दलितों के ऊपर शासन करने लगे. सत्तासीन दलित सामंती प्रथा को अपनाने लगे और उसकी परिणति यह हुई कि जिस मिथ्या धारणा के आधार पर यह आंदोलन शुरू किया गया था उसका प्रारूप ही पूरा बदल गया. मिथ्या धारणा यह थी कि केवल उच्च जातियों द्वारा ही दलितों पर अत्याचार हुआ है पर जब खुद दलित सामंत बन गए और वो अपना वर्चस्व दिखाने लगे तो यह धारणा पूरी तरह बदल तो नहीं पाई बल्कि आंदोलन की दिशा भ्रष्ट हो गई.
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दलित शासक दलितों के खिलाफ हो गए
सारे आयाम अगर कहीं आकर विकृत हो जाते हैं तो वह है राजनीति….. खास कर इस तरह के आंदोलनों के द्वारा प्रकाश में आए लोग या तो उन मुख्य आदर्शों को ढोते-ढोते मर जाते हैं या फिर उनकी बलि दे कर अपने पत्ते बिछाने लगते हैं. पहले विकल्प को बहुत कम ही लोग अपनाते हैं और दूसरे पर तो लोगों की बाढ़ लगी नजर आती है. ठीक इसी प्रकार कांशीराम द्वारा दलितों को सक्रिय करने के लिए चलाए गये मुहिम में सीधा फायदा मायावती को पहुंचा. कांशीराम की परिकल्पना में सारे दलितों को एक राजनैतिक मंच प्रदान करना था, जिससे वो अपनी सक्रियता जाहिर कर सकें और उन्हें एक स्वतंत्र आवाज मिले. पर वो ऐसा कर ना सके. अपने वर्चस्व को कायम रख पाने में असमर्थ कांशीराम से सारा मूल मायावती ने ले लिया और यहां से शुरू हुई दलित के पक्ष और विपक्ष पर राजनीति. यह राजनीति जिसे कभी क्रांति कहा जाता था वो अब मात्र सत्ता में बने रहने का एक उपकरण भर रह गया. जिसके आधार पर शासन करना और खोखली हिमायत दिखा कर अपना काम निकालना ही उद्देश्य बन गया. इस पूरे घटना क्रम में अगर किसी की हालत एक समान रही तो वो है दलित. यहां दलित को सिर्फ प्रयोग किया गया है, उसके उपर पैर रख कर सत्ता तक पहुंचा गया है, ना ही उसकी अवस्था बदली और न ही उसे वो अधिकार प्राप्त हुआ जिसके लिए पूरे दृश्य को रचा गया था.
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